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नियमसार
२१५
कर्मण: आत्मानं भिन्नं भावयति विमलगुणनिलयम्। मध्यस्थभावनायामविकृतिकरणमिति विज्ञेयम्।। १११ ।।
इह हि शुद्धोपयोगिनो जीवस्य परिणतिविशेषः प्रोक्तः।
यः पापाटवीपावको द्रव्यभावनोकर्मभ्यः सकाशाद् भिन्नमात्मानं सहजगुण-[ निलयं मध्यस्थभावनायां भावयति तस्याविकृतिकरण-] अभिधानपरमालोचनायाः स्वरूपमस्त्येवेति।
__(मंदाक्रांता) आत्मा भिन्नो भवति सततं द्रव्यनोकर्मराशेरन्तःशुद्धः शमदमगुणाम्भोजिनीराजहंसः। मोहाभावादपरमखिलं नैव गृह्णाति सोऽयं नित्यानंदाद्यनुपमगुणश्चिच्चमत्कारमूर्तिः।। १६२ ।।
गाथा १११ अन्वयार्थ:-[ मध्यस्थभावनायाम् ] जो मध्यस्थभावनामें [कर्मणः भिन्नम् ] कर्मसे भिन्न [ आत्मानं ] आत्माको-[ विमलगुणनिलयं] कि जो विमल गुणोंका निवास है उसे[ भावयति ] भाता है, [ अविकृतिकरणम् इति विज्ञेयम् ] उस जीवको अविकृतिकरण जानना।
टीका:-यहाँ शुद्धोपयोगी जीवकी परिणतिविशेषका ( मुख्य परिणतिका) कथन है।
पापरूपी अटवीको जालनेके लिये अग्नि समान ऐसा जो जीव द्रव्यकर्म , भावकर्म और नोकर्मसे भिन्न आत्माको-कि जो सहज गुणोंका निधान है उसे–माध्यस्थ भावनामें भाता है, उसे अविकृतिकरण-नामक परम-आलोचनाका स्वरूप वर्तता ही है।
। [अब इस १११ वी गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज नौ श्लोक कहते हैं :]
[ श्लोकार्थ:- ] आत्मा निरंतर द्रव्यकर्म और नोकर्मके समूहसे भिन्न है, अंतरंगमें शुद्ध है और शम-दमगुणरूपी कमलोंको राजहंस है ( अर्थात् जिसप्रकार राजहंस कमलोंमें केलि करता है उसीप्रकार आत्मा शांतभाव और जितेंद्रियतारूपी गुणोंमें रमता है)। सदा आनंदादि अनुपम गुणवाला और चैतन्यचमत्कारकी मूर्ति ऐसा वह आत्मा मोहके अभावके समस्त परको (-समस्त परद्रव्यभावोंको) ग्रहण नहीं करता । १६२।
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