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नियमसार
२०३
(मालिनी) जयति सहजतत्त्वं तत्त्वनिष्णातबुद्धेः हृदयसरसिजाताभ्यन्तरे संस्थितं यत्। तदपि सहजतेजः प्रास्तमोहान्धकारं स्वरसविसरभास्वबोधविस्फूर्तिमात्रम्।। १४८ ।।
( पृथ्वी) अखंडितमनारतं सकलदोषदूरं परं भवांबुनिधिमग्नजीवततियानपात्रोपमम्। अथ प्रबलदुर्गवर्गदववहिकीलालकं नमामि सततं पुनः सहजमेव तत्त्वं मुदा।। १४९ ।।
__ (पृथ्वी) जिनप्रभुमुखारविन्दविदितं स्वरूपस्थितं मुनीश्वरमनोगृहान्तरसुरत्नदीपप्रभम्। नमस्यमिह योगिभिर्विजितदृष्टिमोहादिभिः नमामि सुखमन्दिरं सहजतत्त्वमुच्चैरदः।। १५० ।।
[ श्लोकार्थ:-] तत्त्वमें निष्णात बुद्धिवाले जीवके हृदयकमलरूप अभ्यंतरमें जो सुस्थित है, वह सहज तत्त्व जयवंत है। उस सहज तेजने मोहांधकारका नाश किया है और वह ( सहज तेज) निज रसके विस्तारसे प्रकाशित ज्ञानके प्रकाशनमात्र है। १४८ ।
[ श्लोकार्थ:-] और, जो (सहज तत्त्व) अखंडित है, शाश्वत है, सकल दोषसे दूर है, उत्कृष्ट है, भवसागरमें डूबे हुए जीवसमूहको नौका समान है तथा प्रबल संकटोंके समूहरूपी दावानलको ( शांत करनेके लिये ) जल समान है, उस सहज तत्त्वको मैं प्रमोदसे सतत् नमस्कार करता हूँ। १४९ ।
[ श्लोकार्थ:-] जो जिनप्रभुके मुखारविंदसे विदित ( प्रसिद्ध ) है, जो स्वरूपमें स्थित हैं, जो मुनीश्वरोंके मनोगृहके भीतर सुंदर रत्नदीपकी भाँति प्रकाशित है, जो इस लोकमें दर्शनमोहादि पर विजय प्राप्त किये हुए योगियोंसे नमस्कार करनेके योग्य है तथा जो सुखका मंदिर है, उस सहज तत्त्वको मैं सदा अत्यंत नमस्कार करता हूँ। १५० ।
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