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गाथा
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१७९ १८०
१८१
पपरा कथन
| विषय
गाथा| विषय केवलदर्शनके अभावमें सर्वज्ञता नहीं
| निरुपाधिस्वरूप जिसका लक्षण है ऐसे होती, तत्सम्बन्धी कथन
१६८ | परमात्मतत्त्व सम्बन्धी कथन व्यवहारनयकी प्रगटतासे कथन | १६९ | सांसारिक विकारसमूहके अभावके
कारण परमतत्त्वको निर्वाण है, | ‘जीव ज्ञानस्वरूप है' ऐसा वितर्कपूर्वक
तत्संबंधी कथन निरूपण
| परमनिर्वाणयोग्य परमतत्त्वका स्वरूप गुण-गुणीमें भेदका अभाव होने सन्बन्धी
परमतत्त्वके स्वरूपका विषेश कथन कथन
१७१ | भगवान सिद्धके स्वभावगुणोंके सर्वज्ञ वीतरागको वांछाका अभाव होता
स्वरूपका कथन है, तत्सम्बन्धी कथन
| सिद्धिके और सिद्धके एकत्वका
प्रतिपादन केवलज्ञानीको बंधके अभावके स्वरूप
सिद्धक्षेत्रसे ऊपर जीव-पुद्गलोंके सम्बन्ध कथन
१७३ | गमनका निषेध केवलीभट्टारकके मनरहितपने सम्बन्धी १७५ | नियमशब्दका और उसके फलका कथन
उपसंहार शुद्ध जीवको स्वभावगतिकी प्राप्ति
भव्यको सीख होनेके उपायका कथन
१७६ | शास्त्रके नामकथन द्वारा शास्त्रका कारण-परमतत्त्वके स्वरूपका कथन । १७७ | उपसंहार
१८४ १८५
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जीवादिबहित्तच्चं हेयमुवादेयमप्पणो कम्मोपाधिसमुभवगुणपज्जाएहिं वरिदित्तो
अप्पा ।
।।३८ ।।
जदि सक्कदि कार्यु जे पडिकमणादिं करेज्ज झाणमयं । सत्तिविहीणो जा जह सद्दहणं चेव कायव्वं
।।१५४ ।।
नियमसार
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