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नियमसार
१७९
तथा समयसारख्याख्यायां च
(आर्या) 'प्रत्याख्याय भविष्यत्कर्म समस्तं निरस्तसंमोहः। आत्मनि चैतन्यात्मनि निष्कर्मणि नित्यमात्मना वर्ते।।''
तथा हि
(मंदाक्रांता) सम्यग्दृष्टिस्त्यजति सकलं कर्मनोकर्मजातं प्रत्याख्यानं भवति नियतं तस्य संज्ञानमूर्तेः। सच्चारित्राण्यघकुलहराण्यस्य तानि स्युरुच्चैः तं वंदेहं भवपरिभवक्लेशनाशाय नित्यम्।। १२७ ।।
केवलणाणसहावो केवलदसणसहावसुहमइओ। केवलसत्तिसहावो सो हं इदि चिंतए णाणी।। ९६ ।।
इसीप्रकार समयसारकी ( अमृतचंद्राचार्यदेवकृत आत्मख्याति नामक) टीकामें भी ( २२८ वें श्लोक द्वारा) कहा है कि:
" [ श्लोकार्थ:-] ( प्रत्याख्यान करनेवाला ज्ञानी कहता है कि-) भविष्यके समस्त कर्मोंका प्रत्याख्यान करके (-त्यागकर), जिसका मोह नष्ट हुआ है ऐसा मैं निष्कर्म ( अर्थात सर्व कर्मोंसे रहित) चैतन्यस्वरूप आत्मामें आत्मासे ही ( -स्वयंसे ही) निरंतर वर्तता हूँ।"
और (इस ९५ वी गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव श्लोक कहते हैं) :
[ श्लोकार्थ:-] जो सम्यग्दृष्टि समस्त कर्म-नोकर्मके समूहको छोड़ता है, उस सम्यग्ज्ञानकी मूर्तिको सदा प्रत्याख्यान है और उसे पापसमूहका नाश करनेवाले ऐसे सत्चारित्र अतिशयरूपसे हैं। भव-भवके कलेशका नाश करने के लिये उसे मैं नित्य वंदन करता हूँ। १२७।
केवल्य दर्शन-ज्ञान-सुख कैवल्य शक्ति स्वभावी जो । मैं हूँ वही , यह चिन्तवन होता निरन्तर ज्ञानिको ।। ९६ ।।
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