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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates निश्चय-प्रत्याख्यान अधिकार १७८ निश्चयनयप्रत्याख्यानस्वरूपाख्यानमेतत्। अत्र व्यवहारनयादेशात् मुनयो भुक्त्वा दैनं दैनं पुनर्योग्यकालपर्यन्तं प्रत्यादिष्टान्नपानखाद्यलेह्यरुचयः, एतद् व्यवहारप्रत्याख्यानस्वरूपम्। निश्चयनयतः प्रशस्ताप्रशस्तसमस्तवचनरचनाप्रपंचपरिहारेण शुद्धज्ञानभावनासेवाप्रसादादभिनवशुभाशुभद्रव्यभावकर्मणां संवर: प्रत्याख्यानम्। यः सदान्तर्मुखपरिणत्या परमकलाधारमत्यपूर्वमात्मानं ध्यायति तस्य नित्यं प्रत्याख्यानं भवतीति। तथा चोक्तं समयसारे 'सव्वे भावे जम्हा पच्चक्खाई परे त्ति णादूणं। तम्हा पच्चक्खाणं णाणं णियमा मुणेयव्वं ।।'' टीका:-यह, निश्चयनयके प्रत्याख्यानके स्वरूपका कथन है। यहाँ ऐसा कहा है कि-व्यवहारनयके कथनसे , मुनि दिन- दिनमें भोजन करके फिर योग्य काल पर्यंत अन्न, पान खाद्य और लेह्यकी रुचि छोड़ते हैं; यह व्यवहार-प्रत्याख्यानका स्वरूप है। निश्चयनयसे, प्रशस्त-अप्रशस्त समस्त वचनरचनाके प्रपंचके परिहार द्वारा शुद्धज्ञानभावनाकी सेवाके प्रसाद द्वारा जो नवीन शुभाशुभ द्रव्यकर्मोंका तथा भावकर्मोंका संवर होना सो प्रत्याख्यान है। जो सदा अंतर्मुख परिणमनसे परम कलाके आधाररूप अतिअपूर्व आत्माको ध्याता है, उसे नित्य प्रत्याख्यान है। इसीप्रकार (श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवप्रणीत) श्री समयसारमें (३४ वी गाथा द्वारा) कहा है कि :--- " [गाथार्थ:-] 'अपने अतिरिक्त सर्व पदार्थों पर हैं' ऐसा जानकर प्रत्याख्यान करता हैं-त्याग करता है, इसलिये प्रत्याख्यान ज्ञान ही है ( अर्थात् अपने ज्ञानमें त्यागरूप अवस्था ही प्रत्याख्यान है) ऐसा नियमसे जानना।" * प्रपंच = विस्तार। (अनेक प्रकारकी समस्त वचनरचनाको छोड़कर शुद्ध ज्ञानको भानेसे उस भावनाके सेवनकी कृपासे-भावकर्मोका तथा द्रव्यकर्मोका संवर होता है।) Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008273
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorHimmatlal Jethalal Shah
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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