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परमार्थ-प्रतिक्रमण अधिकार
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(इंद्रवज्रा) निर्यापकाचार्यनिरुक्तियुक्तामुक्तिं सदाकर्ण्य च यस्य चित्तम्। समस्तचारित्रनिकेतनं स्यात् तस्मै नमः संयमधारिणेऽस्मै।। १२५ ।।
(वसंततिलका) यस्य प्रतिक्रमणमेव सदा मुमुक्षोस्त्यिप्रतिक्रमणमप्यणुमात्रमुच्चैः। तस्मै नमः सकलसंयमभूषणाय श्रीवीरनन्दिमुनिनामधराय नित्यम्।। १२६ ।।
इति सुकविजनपयोजमित्रपंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रहश्रीपद्मप्रभमलधारिदेव-विरचितायां नियमसारव्याख्यायां तात्पर्यवृत्तौ निश्चयप्रतिक्रमणाधिकारः पंचमः श्रुतस्कन्धः।।
[अब इस परमार्थ-प्रतिक्रमण अधिकारकी अन्तिम गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव दो श्लोक कहते हैं :]
[ श्लोकार्थ:-] निर्यापक आचार्योंकी निरुक्ति (-व्याख्या) सहित (प्रतिक्रमणादि संबंधी) कथन सदा सुनकर जिसका चित्त समस्त चारित्रका निकेतन (-धाम) बनता है, ऐसे उस संयमधारीको नमस्कार हो। १२५ ।
[ श्लोकार्थ:-] मुमुक्षु ऐसे जिन्हें ( –मोक्षार्थी ऐसे जिन वीरनंदी मुनिको) सदा प्रतिक्रमण ही है और अणुमात्र भी अप्रतिक्रमण नहीं है, उन सकलसंयमरूपी भूषणके धारण करने वाले श्री वीरनंदी नामके मुनिको नित्य नमस्कार हो। १२६ ।
इसप्रकार, सुकविजनरूपी कमलोझके लिये जो सूर्य समान हैं और पाँच इंद्रियों के विस्तार रहित देहमात्र जिन्हें परिग्रह था ऐसे श्री पद्मप्रभमलधारिदेव द्वारा रचित नियमसारकी तात्पर्यवृत्ति नामकी टीकामें (अर्थात् श्रीमद्भगवत्-कुंदकुंदाचार्यदेवप्रणीत श्री नियमसार परमागमकी निग्रंथ मुनिराज श्री पद्मप्रभुमलधारिदेवविरचित तात्पर्यवृत्ति नामकी टीकामें) निश्चय-प्रतिक्रमण अधिकार नामका पाँचवाँ श्रुतस्कंध समाप्त हुआ।
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