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नियमसार
१७५
पडिकमणणामधेये सुत्ते जह वण्णिदं पडिक्कमणं। तह णच्चा जो भावइ तस्स तदा होदि पडिक्कमणं ।। ९४ ।।
प्रतिक्रमणनामधेये सूत्रे यथा वर्णितं प्रतिक्रमणम्। तथा ज्ञात्वा यो भावयति तस्य तदा भवति प्रतिक्रमणम्।। ९४ ।।
अत्र व्यवहारप्रतिक्रमणस्य सफलत्वमुक्तम्।
यथा हि निर्यापकाचार्यैः समस्तागमसारासारविचारचारुचातुर्यगुणकदम्बकैः प्रतिक्रमणाभिधानसूत्रे द्रव्यश्रुतरूपे व्यावर्णितमतिविस्तरेण प्रतिक्रमणं, तथा ज्ञात्वा जिननीतिमलंघयन् चारुचरित्रमूर्तिः सकलसंयमभावनां करोति, तस्य महामुनेर्बाह्यप्रपंचविमुखस्य पंचेन्द्रियप्रसरवर्जित
गात्रमात्रपरिग्रहस्य परमगुरुचरणस्मरणासक्तचित्तस्य तदा प्रतिक्रमणं भवतीति।
गाथा ९४ अन्वयार्थ:-[ प्रतिक्रमणनामधेये] प्रतिक्रमण नामक [ सूत्रे ] सूत्रमें [ यथा] जिस प्रकार [ प्रतिक्रमणम् ] प्रतिक्रमण [वर्णितं] कहा गया है [ तथा ज्ञात्वा ] तदनुसार जानकर [ यः] जो [ भावयति ] भाता है, [तस्य ] उसे [ तदा ] तब [ प्रतिक्रमणम् भवति ] प्रतिक्रमण है।
टीका:-यहाँ, व्यवहारप्रतिक्रमण की सफलता कही है (अर्थात् द्रव्यश्रुतात्मक प्रतिक्रमणसूत्रमें वर्णित प्रतिक्रमणको सुनकर-जानकर, सकल संयमकी भावना करना वही व्यवहारप्रतिक्रमणकी सफलता-सार्थकता है ऐसा इस गाथामें कहा है)।
समस्त आगमके सारासारका विचार करनेमें सुंदर चातुर्य तथा गुणसमूहके धारण करनेवाले निर्यापक आचार्योंने जिसप्रकार द्रव्यश्रुतरूप प्रतिक्रमणनामक सूत्रमें प्रतिक्रमणका अति विस्तारसे वर्णन किया है, तदनुसार जानकर जिननीतिको अनुल्लंघता हुआ जो सुंदरचारित्रमूर्ति महामुनि सकल संयमकी भावना करता है, उस महामुनिको कि जो (महामुनि) बाह्य प्रपंचसे विमुख है, पंचेंद्रियके विस्तार रहित देहमात्र जिसे परिग्रह है और परम गुरुके चरणोंके स्मरणमें आसक्त जिसका चित्त है, उसे-तब ( उस काल) प्रतिक्रमण है।
प्रतिक्रमणनामक सूत्रमें प्रतिक्रमण वर्णित है यथा । होता उसे प्रतिक्रमण जो जाने तथा भावे तथा ।। ९४ ।।
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