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व्यवहारचारित्र अधिकार
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अपहृतसंयमिनां संयमज्ञानाद्युपकरणग्रहणविसर्गसमयसमुद्भवसमितिप्रकारोक्तिरियम्। उपेक्षासंयमिनां न पुस्तककमण्डलुप्रभृतयः, अतस्ते परमजिनमुनयः एकान्ततो निस्पृहाः, अत एव बाह्योपकरणनिर्मुक्ताः। अभ्यन्तरोपकरणं निजपरमतत्त्वप्रकाशदक्षं निरुपाधिस्वरूपसहज- ज्ञानमन्तरेण न किमप्युपादेयमस्ति। अपहृतसंयमधराणां परमागमार्थस्य पुनः पुनः प्रत्यभिज्ञानकारणं पुस्तकं ज्ञानोपकरणमिति यावत्, शौचोपकरणं च कायविशुद्धिहेतु: कमण्डलुः, संयमोपकरणहेतु: पिच्छ। एतेषां ग्रहणविसर्गयोः समयसमुद्भवप्रयत्न-परिणामविशुद्धिरेव हि आदाननिक्षेपणसमितिरिति निर्दिष्टेति।
(मालिनी) समितिषु समितीयं राजते सोत्तमानां परमजिनमुनीनां संहतौ क्षांतिमैत्री। त्वमपि कुरु मन:पंकेरुहे भव्य नित्यं भवसि हि परमश्रीकामिनीकांतकांतः।। ८७ ।।
__ यह, अपहृतसंयमियोंको संयमज्ञानादिकके उपकरण लेते-रखते समय उत्पन्न होने वाली समितिका प्रकार कहा है। उपेक्षासंयमियोंको पुस्तक, कमंडल आदि नहीं होते; वे परमजिनमुनि एकांतमें ( –सर्वथा) निस्पृह होते हैं इसलिये वे बाह्य उपकरण रहित होते हैं। अभ्यंतर उपकरणभूत , निज परमतत्त्वको प्रकाशित करनेमें चतुर ऐसा जो निरुपाधिस्वरूप सहज ज्ञान उसके अतिरिक्त अन्य कुछ उन्हें उपादेय नहीं है। अपहृतसंयमधरोंको परमागमके अर्थका पुनः पुनः प्रत्यभिज्ञान होनेमें कारणभूत ऐसी पुस्तक वह ज्ञानका उपकरण है; शौचका उपकरण कायविशुद्धिके हेतुभूत कमंडल है; संयमका उपकरण-हेतु पीछी है। इन उपकरणोंको लेते-रखते समय उत्पन्न होनेवाली प्रयत्नपरिणामरूप विशुद्धि ही आदाननिक्षेपणसमिति है ऐसा ( शास्त्रमें ) कहा है।
[अब ६४ वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं:]
[ श्लोकार्थ:-] उत्तम परमजिनमुनियोंकी यह समिति समितियोंमें शोभती है। उसके संगमें क्षांति और मैत्री होते हैं (अर्थात् इस समितियुक्त मुनिको धीरजसहनशीलता–क्षमा और मैत्रीभाव होते हैं ]। हे भव्य ! तू भी मन-कमलमें सदा वह समिति धारण कर, कि
१। अपहृतसंयमी = अपहृतसंयमवाले मुनि। [अपवाद , व्यवहारनय, एकदेशपरित्याग,
अपहृतसंयम (हीन-न्यूनतावाला संयम), सरागचारित्र और शुभोपयोग-यह सब एकार्थ
२। उपेक्षासंयमी = उपेक्षासंयमवाले मुनि। [ उत्सर्ग, निश्चयनय, सर्वपरित्याग, उपेक्षासंयम,
वीतरागचारित्र और शुद्धोपयोग-यह सब एकार्थ है।]
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