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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates व्यवहारचारित्र अधिकार १२२ अशुद्धजीवानां विभावधर्मं प्रति व्यवहारनयस्योदाहरणमिदम्। इदानीं निश्चयस्योदाहृतिरुच्यते। तद्यथा "जस्स अणेसणमप्पा तं पि तवो तप्पडिच्छगा समणा। अण्णं भिक्खमणेसणमध ते समणा अणाहारा।।'' तथा चोक्तं श्रीगुणभद्रस्वामिभि: (मालिनी) "यमनियमनितान्तः शान्तबाह्यान्तरात्मा परिणमितसमाधिः सर्वसत्त्वानुकम्पी। विहितहितमिताशी क्लेशजालं समूलं । दहति निहतनिद्रो निश्चिताध्यात्मसारः।।'' -अशुद्ध जीवोंके विभावधर्म सम्बन्धमें व्यवहारनयका यह (अवतरण की हुई गाथामें) उदाहरण है। अब (श्री प्रवचनसारकी २२७ वी गाथा द्वारा) निश्चयका उदाहरण कहा जाता है। वह इसप्रकार :--- ___“[गाथार्थ:-] जिसका आत्मा एषणारहित है (अर्थात् जो अनशनस्वभावी आत्माको जाननेके कारण स्वभावसे आहारकी इच्छा रहित है) उसे वह भी तप है; (और) उसे प्राप्त करनेके लिये (-अनशनस्वभावी आत्माको परिपूर्णरूपसे प्राप्त करनेके लिये) प्रयत्न करनेवाले ऐसे जो श्रमण उन्हें अन्य (-स्वरूपसे भिन्न ऐसी) भिक्षा एषणा बिना (एषणादोष रहित) होती है; इसलिये वे श्रमण अनाहारी हैं।" इसीप्रकार ( आचार्यवर ) श्री गुणभद्रस्वामीने (आत्मानुशासनमें २२५ वें श्लोक द्वारा) कहा है कि :--- ____ “[ श्लोकार्थ:-] जिसने अध्यात्मके सारका निश्चय किया है, जो अत्यंत यमनियम सहित है, जिसका आत्मा बाहरसे और भीतरसे शांत हुआ है, जिसे समाधि परिणमित हुई है, जिसे सर्व जीवोंके प्रति अनुकंपा है, जो विहित (-शास्त्राज्ञाके अनुसार) Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008273
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorHimmatlal Jethalal Shah
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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