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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates व्यवहारचारित्र अधिकार ११२ निहितं पतितं वा विस्मृतं वा परद्रव्यं दृष्ट्वा स्वीकारपरिणामं यः परित्यजति, तस्य हि तृतीयव्रतं भवति इति। (आर्या) आकर्षति रत्नानां संचयमुचैरचौर्य्यमेतदिह। स्वर्गस्त्रीसुखमूलं क्रमेण मुक्त्यंगनायाश्च ।। ७८ ।। दर्ण इत्थिरूवं वांछाभावं णियत्तदे तासु। मेहुणसण्णविवज्जियपरिणामो अहव तुरियवदं।। ५९ ।। दृष्ट्वा स्त्रीरूपं वांच्छाभावं निवर्तते तासु। मैथुनसंज्ञाविवर्जितपरिणामोऽथवा तुरीयव्रतम्।। ५९ ।। चतुर्थव्रतस्वरूपकथनमिदम्। कमनीयकामिनीनां तन्मनोहराङ्गनिरीक्षणद्वारेण समुपजनितकौतूहलचित्तवांच्छापरि- त्यागेन, छोड़ी हुई, रखी हुई, गिरी हुई अथवा भूली हुई परवस्तुको देखकर उसके स्वीकारपरिणामका (अर्थात् उसे अपनी बनाने-ग्रहण करनेके परिणामका) जो परित्याग करता है, उसे वास्तव में तीसरा व्रत होता है। [अब ५८ वी गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं:] [श्लोकार्थ:-] यह उग्र अचौर्य इस लोकमें रत्नोंके संचयको आकर्षित करता है और (परलोकमें) स्वर्गकी स्त्रीओंके सुखका कारण है तथा क्रमानुसार मुक्तिरूपी स्त्रीके सुख का कारण है। ७८। गाथा ५९ अन्वयार्थ:-[ स्त्रीरूपं दृष्ट्वा ] स्त्रीओंका रूप देखकर [ तासु] उनके प्रति [वांच्छाभावं निवर्तते] वांछाभावकी निवृत्ति वह [अथवा] अथवा [ मैथुनसंज्ञाविवर्जितपरिणामः ] मैथुनसंज्ञारहित जो परिणाम वह [ तुरीयव्रतम् ] चौथा व्रत है। टीका:-यह, चौथा व्रतके स्वरूपका कथन है। सुंदर कामिनियोंकें मनोहर अंगके निरीक्षण द्वारा उत्पन्न होनेवाली कुतूहलताके-चित्तवांछाके–परित्यागसे, जो देख रमणी रूप वांछाभाव उसमें छोड़ता। परिणाम मैथुन-संज्ञ-वर्जित व्रत चतुर्थ यही कहा ।। ५९ । Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008273
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorHimmatlal Jethalal Shah
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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