________________
Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates
शुद्धभाव अधिकार
१००
ये पूर्वं न विद्यन्ते इति प्रतिपादितास्ते सर्वे विभावपर्यायाः खलु व्यवहारनयादेशेन विद्यन्ते। संसृतावपि ये विभावभावैश्चतुर्भिः परिणताः सन्तस्तिष्ठन्ति अपि च ते सर्वे भगवतां सिद्धानां शुद्धगुणपर्यायैः सदृशाः शुद्धनयादेशादिति।
तथा चोक्तं श्रीमदमृतचन्द्रसूरिभिः
( मालिनी) "व्यवहरणनयः स्याद्यद्यपि प्राक्पदव्यामिह निहितपदानां हंत हस्तावलम्बः। तदपि परममर्थं चिच्चमत्कारमात्रं परविरहितमन्तः पश्यतां नैष किंचित्।।''
पहले जो विभावपर्याये ‘विद्यमान नहीं हैं' ऐसी प्रतिपादित की गई हैं वे सब विभावपर्यायें वास्तवमें व्यवहारनयके कथनसे विद्यमान हैं। और जो ( व्यवहारनयके कथनसे) चार विभावभावरूप परिणत होनेसे संसारमें भी विद्यमान हैं वे सब शुद्धनयके कथनसे शुद्धगुणपर्यायों द्वारा सिद्धभगवंत समान हैं (अर्थात् जो जीव व्यवहारनयके कथनसे औदयिकादि विभावभावोंवाले होनेसे संसारी हैं वे सब शुद्धनयके कथनसे शुद्ध गुण तथा शुद्ध पर्यायोंवाले होनेसे सिद्ध सदृश हैं)।
इसीप्रकार ( आचार्यदेव ) श्रीमद् अमृतचंद्रसूरिने ( श्री समयसारकी आत्मख्याति नामक टीकामें पाँचवें श्लोक द्वारा) कहा है कि:
" [ श्लोकार्थ:-] यद्यपि व्यवहारनय इस प्रथम भूमिकामें जिन्होंने पैर रखा है ऐसे जीवोंको, अरे रे! हस्तावलंबरूप भले हो तथापि जो जीव चैतन्यचमत्कारमात्र, परसे रहित ऐसे परम पदार्थको अंतरंगमें देखते हैं उन्हें यह व्यवहारनय कुछ नहीं है।"
इसलिये 'व्यवहारनयके विषयों का भी ज्ञान तो ग्रहण करने योग्य है 'ऐसी विवक्षासे ही यहाँ व्यवहारनयको उपादेय कहा है, "उनका आश्रय ग्रहण करने योग्य है" ऐसी विवक्षासे नहीं। व्यवहारनयके विषयोंका आश्रय ( -आलंबन, झुकाव, संमुखता, भावना) तो छोड़नेयोग्य हैं ही ऐसा समझनेके लिये ५०वीं गाथामें व्यवहारनय को स्पष्टरूपसे हेय कहा जायेगा। जिस जीवके अभिप्रायमें शुद्धात्मद्रव्यके आश्रयका ग्रहण और पर्यायों के आश्रयका त्याग हो, उसी जीवको द्रव्यका तथा पर्यायोंका ज्ञान सम्यक् है ऐसा समझना, अन्यको नहीं।
Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com