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________________ ९९ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates नियमसार ( शार्दूलविक्रीडित ) शुद्धाशुद्धविकल्पना भवति सा मिथ्यादृशि प्रत्यहं शुद्धं कारणकार्यतत्त्वयुगलं सम्यग्दृशि प्रत्यहम् । इत्थं यः परमागमार्थमतुलं जानाति सद्द्दक् स्वयं सारासारविचारचारुधिषणा वन्दामहे तं वयम्।। ७२ ।। एदे सव्वे भावा ववहारणयं पडुच भणिदा हु सव्वे सिद्धसहावा सुद्धणया संसिदी जीवा ।। ४९ ।। एते सर्वे भावाः व्यवहारनयं प्रतीत्य भणिताः खलु । सर्वे सिद्धस्वभावाः शुद्धनयात् संसृतौ जीवाः ।। ४९ ।। निश्चयव्यवहारनययोरुपादेयत्वप्रद्योतनमेतत् । [ श्लोकार्थ :- ] शुद्ध-अशुद्धकी जो विकल्पना वह मिथ्यादृष्टिको सदैव होती है; सम्यग्दृष्टिको तो सदा ( ऐसी मान्यता होती है कि ) कारणतत्त्व और कार्यतत्त्व दोनों शुद्ध हैं। इसप्रकार परमागमके अतुल अर्थको सारासारके विचारवाली सुंदर बुद्धि द्वारा जो सम्यग्दृष्टि स्वयं जानता है, उसे हम वंदन करते हैं । ७२ । = गाथा ४९ अन्वयार्थः-[ एते] यह ( पूर्वोक्त ) [ सर्वे भावाः ] सब भाव [ खलु] वास्तवमें [ व्यवहारनयं प्रतीत्य ] व्यवहारनयका आश्रय करके [ भणिता: ] ( संसारी जीवोमें विद्यमान ) कहे गये हैं; [ शुद्धनयात् ] शुद्धनयसे [ संसृतौ ] संसारमें रहनेवाले [ सर्वे जीवाः ] सर्व जीव [ सिद्धस्वभावाः ] सिद्धस्वभावी हैं। टीका:-यह, निश्चयनय और व्यवहारनयकी उपादेयता प्रकाशन ( - कथन ) है। १ विकल्पना विपरीत कल्पना; मिथ्या मान्यता; अनिश्चय; शंका भेद करना। २ प्रमाणभूत ज्ञानमें शुद्धात्मद्रव्यका तथा उसकी पर्यायोंका - दोनोंका सम्यक् ज्ञान होना चाहिये। ' स्वयंको कथंचित् विभावपर्यायें विद्यमान है' ऐसा स्वीकार ही जिसके ज्ञानमें न हो उसे शुद्धात्मद्रव्यका भी सच्चा ज्ञान नहीं हो सकता । व्यवहारनयसे है कहे सब जीवके ही भाव ये । शुद्ध से जीव सब भवलीन सिद्ध स्वभावसे ।। ४९ ।। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008273
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorHimmatlal Jethalal Shah
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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