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नियमसार
८०
(स्रग्धरा) इत्थं बुद्धवोपदेशं जननमृतिहरं यं जरानाशहेतुं भक्तिप्रामरेन्द्रप्रकटमुकुटसद्रत्नमालार्चितांघेः। वीरात्तीर्थाधिनाथाददुरितमलकुलध्वांतविध्वंसदक्षं एते संतो भवाब्धेरपरतटममी यांति सच्छीलपोताः।। ६१ ।।
णिइंडो णिबंदो णिम्ममो णिक्कलो णिरालंबो। णीरागो णिद्दोसो णिम्मूढो णिब्भयो अप्पा।। ४३ ।।
निर्दण्डः निर्द्वन्द्वः निर्ममः नि:कलः निरालंबः। नीरागः निर्दोष: निर्मूढ: निर्भयः आत्मा।। ४३ ।।
इह हि शुद्धात्मनः समस्तविभावाभावत्वमुक्तम्।
[ श्लोकार्थ:-] भक्तिसे नमित देवेंद्र मुकुटकी सुंदर रत्नमाला द्वारा जिनके चरणोंको प्रगटरूपसे पूजते हैं ऐसे महावीर तीर्थाधिनाथ द्वारा यह संत जन्म-जरा-मृत्युका नाशक तथा दुष्ट पापसमूहरूपी अंधकारका ध्वंस करनेमें चतुर ऐसा इसप्रकारका (पूर्वोक्त) उपदेश समझकर, सत्शीलरूपी नौका द्वारा भवाब्धिके सामने किनारे पहुँच जाते हैं। ६१।
गाथा-४३ अन्वयार्थ:-[ आत्मा] आत्मा [ निर्दण्ड: ] निर्दंड, [ निर्द्वन्द्वः ] निर्द्वन्द्व, [ निर्ममः ] निर्मम , [ निःकलः ] निःशरीर, [ निरालंब: ] निरालंब , [ नीरागः ] नीराग , [ निर्दोषः ] निर्दोष , [ निर्मूढः ] निर्मूढ और [ निर्भयः ] निर्भय है।
टीका:-यहाँ (इस गाथामें ) वास्तवमें शुद्ध आत्माको समस्त विभावका अभाव है ऐसा कहा है।
१- निर्दण्ड = दण्ड रहित। (जिस मनवचनकायाश्रित प्रवर्तनसे आत्मा दण्डित होता है उस
प्रवर्तनको दण्ड कहा जाता है।)
निर्दंड अरु निर्द्वद्व निर्मम निःशरीर, निराग है। निर्मूढ निर्भय, निरवलंबन आत्मा निर्दोष है।। ४३।।
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