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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates शुद्धभाव अधिकार ८६ (मालिनी) “ सकलमपि विहायालाय चिच्छक्तिरिक्तं स्फुटतरमवगाह्य स्वं च चिच्छक्तिमात्रम्। इममुपरि चरंतं चारुविश्वस्य साक्षात् कलयतु परमात्मात्मानमात्मन्यनंतम्।।" (अनुष्टुभ् ) “ चिच्छक्तिव्याप्तसर्वस्वसारो जीव इयानयम्। अतोऽतिरिक्ताः सर्वेऽपि भावाः पौगलिका अमी।।" तथा हि (मालिनी) अनवरतमखण्डज्ञानसद्भावनात्मा व्रजति न च विकल्पं संसृते?ररूपम्। अतुलमनघमात्मा निर्विकल्पः समाधिः परपरिणतिदूरं याति चिन्मात्रमेषः।। ६० ।। " [ श्लोकार्थ:-] चित्शक्तिसे रहित अन्य सकल भावोंको मूलसे छोड़कर और चित्शक्तिमात्र ऐसे निज आत्माका अति स्फुटरूपसे अवगाहन करके, आत्मा समस्त विश्वके ऊपर प्रवर्तमान ऐसे इस केवल (एक) अविनाशी आत्माको आत्मामें साक्षात् अनुभव करो।" “[ श्लोकार्थ:-] चैतन्यशक्तिसे व्याप्त जिसका सर्वस्व-सार है ऐसा यह जीव इतना ही मात्र है; इस चित्शक्तिसे शून्य जो यह भाव हैं वे सब पौद्गलिक हैं।" ___ और ( ४२ वी गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज दो श्लोक कहते हैं): [ श्लोकार्थ:-] सततरूपसे अखण्ड ज्ञानकी सद्भावनावाला आत्मा (अर्थात् “ मैं अखण्ड ज्ञान हूँ" ऐसी सच्ची भावना जिसे निरन्तर वर्तती है वह आत्मा) संसारके घोर विकल्पको नहीं पाता, किन्तु निर्विकल्प समाधिको प्राप्त करता हुआ परपरिणतिसे दूर, अनुपम, अनघ चिन्मात्रको ( चैतन्यमात्र आत्माको) प्राप्त होता है। ६०। १- अनघ = दोष रहित; निष्पाप; मल रहित। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008273
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorHimmatlal Jethalal Shah
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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