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नियमसार
७९
( अनुष्टुभ् ) नित्यशुद्धचिदानन्दसंपदामाकरं परम्। विपदामिदमेवोचैरपदं चेतये पदम्।। ५६ ।।
(वसंततिलका) यः सर्वकर्मविषभूरुहसंभवानि मुक्त्वा फलानि निजरूपविलक्षणानि। भुंक्तेऽधुना सहजचिन्मयमात्मतत्त्वं प्राप्नोति मुक्तिमचिरादिति संशयः कः।। ५७ ।।
णो खइयभावठाणा णो खयउवसमसहावठाणा वा। ओदइयभावठाणा णो उवसमणे सहावठाणा वा।। ४१ ।।
न क्षायिकभावस्थानानि न क्षयोपशमस्वभावस्थानानि वा। औदयिकभावस्थानानि नोपशमस्वभावस्थानानि वा।। ४१ ।।
[श्लोकार्थ:-] जो नित्य-शुद्ध चिदानंदरूपी संपदाओंकी उत्कृष्ट खान है तथा जो विपदाओंका अत्यंतरूपसे अपद है (अर्थात् जहाँ विपदा बिलकुल नहीं है) ऐसे इसी पदका मैं अनुभव करता हूँ। ५६ ।
[श्लोकार्थ:-] (अशुभ तथा शुभ) सर्व कर्मरूपी विषवृक्षोंसे उत्पन्न होनेवाले, निजरूपसे विलक्षण ऐसे फलोंको छोड़कर जो जीव इसीसमय सहजचैतन्यमय आत्मतत्त्वको भोगता है, वह जीव अल्प कालमें मुक्ति प्राप्त करता है-इसमें क्या संशय है। ५७।
गाथा-४१ अन्वयार्थ:-[ न क्षायिकभावस्थानानि ] जीवको क्षायिकभावके स्थान नहीं हैं, [ न क्षयोपशमस्वभावस्थानानि वा] क्षयोपशमस्वभावके स्थान नहीं हैं, [औदयिकभावस्थानानि] औदयिकभावके स्थान नहीं हैं [वा] अथवा [न उपशमस्वभावस्थानानि] उपशमस्वभावके स्थान नहीं हैं।
नहिं स्थान क्षायिकभावके, क्षायोपशमिक तथा नहीं। नहिं स्थान उपशमभावके, होते उदयके स्थान नहिं।। ४१।।
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