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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates ४४] [मोक्षमार्गप्रकाशक स्वर है वह शब्द है। सो जैसे वीणा की ताँत को हिलाने पर भाषारूप होने योग्य जो पुद्गल स्कन्ध हैं वे साक्षर या अनक्षर शब्दरूप परिणमित होते हैं; उसी प्रकार तालु , होंठ इत्यादि अंगों को हिलानेपर भाषापर्याप्ति में ग्रहण किये गये जो पूदगल स्कन्ध हैं वे साक्षर या अनक्षर शब्दरूप परिणमित होते हैं। तथा शुभ-अशुभ गमनादिक होते हैं। यहाँ ऐसा जानना कि जैसे दो पुरुषों को इकदंडी बेड़ी है। वहाँ एक पुरुष गमनादिक करना चाहे और दूसरा भी गमनादिक करे तो गमनादिक हो सकते हैं, दोनोंमेंसे एक बैठा रहे तो गमनादिक नहीं हो सकते, तथा दोनों में एक बलवान हो तो दूसरे को भी घसीट ले जाये। उसी प्रकार आत्मा के और शरीरादिकरूप पुद्गल के एकक्षेत्रावगाहरूप बंधान है; वहाँ आत्मा हलन-चलनादि करना चाहे और पुद्गल उस शक्ति से रहित हुआ हलन-चलन न करे अथवा पुद्गल में तो शक्ति पायी जाती है, परन्तु आत्मा कि इच्छा न हो तो हलन-चलनादि नहीं हो सकते। तथा इनमें पुद्गल बलवान होकर हलन-चलन करे तो उसके साथ बिना इच्छा के भी आत्मा हलन-चलन करता है। इस प्रकार हलन-चलनादि क्रिया होती है। तथा इसके अपयश आदि बाह्य निमित्त बनते हैं। - इस प्रकार ये कार्य उत्पन्न होते हैं, उनसे मोह के अनुसार आत्मा सुखी-दुःखी भी होता है। ऐसे नामकर्म के उदय से स्वयमेव नानाप्रकार रचना होती है, अन्य कोई करने वाला नहीं है। तथा तीर्थंकरादि प्रकृति यहाँ है ही नहीं। गोत्रकर्मोदयजन्य अवस्था गोत्रकर्म से उच्च-नीच कुल में उत्पन्न होना होता है; वहाँ अपनी अधिकता-हीनता प्राप्त होती है। मोह के उदय से आत्मा सुखी-दुःखी भी होता है। इस प्रकार अघातिकर्मोंके निमित्त से अवस्था होती है। इस प्रकार इस अनादि संसार में घाति-अघातिकर्मोंके उदय के अनुसार आत्माके अवस्था होती है। सो हे भव्य ! अपने अंतरंग में विचार कर देख कि ऐसे ही है कि नहीं। विचार करने पर ऐसा ही प्रतिभासित होता है। यदि ऐसा है तो तू यह मान कि – “ मेरे अनादि संसार रोग पाया जाता है, उसके नाशका मुझे उपाय करना” – इस विचार से तेरा कल्याण होगा। - इति श्री मोक्षमार्गप्रकाशक नामक शास्त्र में संसार अवस्था का निरूपक द्वितीय अधिकार सम्पूर्ण हुआ ।।२।। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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