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दूसरा अधिकार ]
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तथा जैसे कोई नवीन वस्त्र पहिनता है, कुछ काल तक पहिने रहता है; फिर उसको छोड़कर अन्य वस्त्र पहिनता है; उसी प्रकार जीव नवीन शरीर धारण करता है, कुछ काल तक धारण किये रहता है, फिर उसको छोड़कर अन्य शरीर धारण करता है। इसलिये शरीर संबन्ध की अपेक्षा जन्मादिक हैं। जीव जन्मादि रहित नित्य ही है तथापि मोही जीव को अतीत अनागतका विचार नहीं है; इसलिये प्राप्त पर्याय मात्र ही अपनी स्थिति मानकर पर्याय संबन्धी कार्योंमें ही तत्पर हो रहा है।
इस प्रकार आयु से पर्याय की स्थिति जानना।
नामकर्मोदयजन्य अवस्था
तथा नाम कर्म से यह जीव मनुष्यादि गतियोंको प्राप्त होता है; उस पर्यायरूप अपनी अवस्था होती है। वहाँ त्रस - स्थावरादि विशेष उत्पन्न होते हैं। तथा वहाँ एकेन्द्रियादि जातिको धारण करता है। इस जाति कर्मके उदय को और मतिज्ञानावरणके क्षयोपशमको निमित्त-नैमित्तिकपना जानना । जैसा क्षयोपशम हो वैसी जाति प्राप्त करता है।
तथा शरीरों का संबन्ध होता है; वहाँ शरीर के परमाणु और आत्मा के प्रदेशोंका एक बंधान होता है तथा संकोच - विस्ताररूप होकर शरीरप्रमाण आत्मा रहता है । तथा नोकर्मरूप शरीर में अंगोपांगादिकके योग्य स्थान प्रमाणसहित होते हैं। इसीसे स्पर्शन, रसना आदि द्रव्य-इन्द्रियाँ उत्पन्न होती हैं तथा हृदय स्थान में आठ पंखुरियोंके फूले हुए कमलके आकार द्रव्यमन होता है। तथा उस शरीरमें ही आकारादिकका विशेष होना, वर्णादिकका विशेष होना और और स्थूल - सूक्ष्मत्वादिका होना इत्यादि कार्य उत्पन्न होते हैं; सो वे शरीररूप परिणमित परमाणु इस प्रकार परिणमित होते हैं ।
तथा श्वासोच्छ्वास और स्वर उत्पन्न होते हैं; वे भी पुद्गलके पिण्ड हैं और शरीर से एक बंधानरूप हैं। इनमें भी आत्मा के प्रदेश व्याप्त हैं। वहाँ श्वासोच्छ्वास तो पवन है। जैसे आहारका ग्रहण करे और निहारको निकाले तभी जीना होता है; उसी प्रकार बाह्य पवन को ग्रहण करे और अभ्यंतर पवन को निकाले तभी जीवितव्य रहता है। इसलिये श्वासोच्छ्वास जीवितव्य का कारण है। इस शरीर में जिस प्रकार हाड़-मांसादिक हैं उसी प्रकार पवन जानना । तथा जैसे हस्तादिकसे कार्य करते हैं वैसे ही पवन से कार्य करते हैं। मुँह में जो ग्रास खाया उसे पवन से निगलते हैं, मलादिक पवन से ही बाहर निकालते हैं, वैसे ही अन्य जानना। तथा नाड़ी, वायुरोग, वायगोला इत्यादिको पवनरूप शरीर के अंग
जानना ।
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