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परिशिष्ट १
समाधिमरण स्वरूप [पंडितप्रवर टोडरमलजी के सुपुत्र पंडित गुमानिरामजी द्वारा रचित]
[आचार्यकल्प पं० टोडरमलजीके सहपाठी और धर्मप्रभावनामें उत्साहप्रेरक ब्र राजमलजी कृत "ज्ञानानन्द निर्भर निजरस श्रावकाचार” नामक ग्रन्थमें से यह अधिकार बहुत सुन्दर जानकर आत्मधर्म अंक २५३-५४ में दिया था। उसी में से शुरुका अंश यहाँ दिया जाता है।
हे भव्य! तू सुन! अब समाधिमरणका लक्षण वर्णन किया जाता है। समाधि नाम निःकषायका 'है. शान्त परिणामोंका है; भेदविज्ञानसहित, कषायरहित शान्त परिणामोंसे मरण होना समाधिमरण है। संक्षिप्तरूपसे समाधिमरणका यही वर्णन है। विशेषरूपसे कथन आगे किया जा रहा है।
सम्यग्ज्ञानी पुरुषका यह सहज स्वभाव ही है कि वह समाधिमरण की ही इच्छा करता है, उसकी हमेशा यही भावना रहती है। अन्तमें मरण समय निकट आने पर वह इस प्रकार सावधान होता है जिस प्रकार वह सोया हुआ सिंह सावधान होता है - जिसको कोई पुरुष ललकारे कि हे सिंह! तुम्हारे पर बैरियों की फौज आक्रमण कर रही है, तुम पुरुषार्थ करो और गुफासे बाहर निकलो। जब तक बैरियोंका समूह दूर है तब तक तुम तैयार हो जाओ और बैरियों की फौज को जीत लो। महान् पुरुषों की यही रीति है कि वे शत्रुके जागृत होने से पहले तैयार होते हैं।
उस पुरुषके ऐसे वचन सुनकर शार्दूल तत्क्षण ही उठा और उसने ऐसी गर्जना की कि मानो आषाढ़ मास में इन्द्रने ही गर्जना की हो।
मृत्युको निकट जानकर सम्यग्ज्ञानी पुरुष सिंह की तरह सावधान होता है और कायरपनेको दूर ही से छोड़ देता है।
सम्यग्दृष्टि कैसा है ?
उसके हृदयमें आत्मा का स्वरूप दैदिप्यमान प्रगटरूपसे प्रतिभासता है। वह ज्ञानज्योति को लिये आनन्दरससे परिपूर्ण है। वह अपने को साक्षात् पुरुषाकार अमूर्तिक, चैतन्यधातु पिंड, अनन्त अक्षय गुणोंसे युक्त चैतन्यदेव ही जानता है। उसके अतिशयसे ही वह परद्रव्यके प्रति रंचमात्र भी रागी नहीं होता।
सम्यग्दृष्टि रागी क्यों नहीं होता ?
वह अपने निजस्वरूपको ज्ञाता, दृष्टा, परद्रव्योंसे भिन्न, शाश्वत और अविनाशी जानता है और परद्रव्यको तथा रागादिकको क्षणभंगुर, अशाश्वत, अपने स्वभावसे भलीभाँति भिन्न जानता है। इसलिये सम्यग्ज्ञानी कैसे डरे ? ------
क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कषाय हैं।
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