________________
Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates
३२४]
[मोक्षमार्गप्रकाशक
तथा उसके पूर्ववत् आस्रवादिकका भी श्रद्धान होता ही होता है, इसलिये यहाँ भी सातों तत्त्वोंके ही श्रद्धानका नियम जानना।
तथा आस्रवादिकके श्रद्धान बिना आपापरका श्रद्धान व केवल आत्मा का श्रद्धान सच्चा नहीं होता; क्योंकि आत्मा द्रव्य है, सो तो शुद्ध-अशुद्ध पर्याय सहित है। जैसे - तन्तु अवलोकन बिना पटका अवलोकन नहीं होता, उसी प्रकार शुद्ध-अशुद्ध पर्याय पहिचाने बिना आत्मद्रव्य का श्रद्धान नहीं होता; उस शुद्ध-अशुद्ध अवस्था की पहिचान आस्रवादिककी पहिचानसे होती है। तथा आस्रवादिकके श्रद्धान बिना आपापरका श्रद्धान व केवल आत्माका श्रद्धान कार्यकारी भी नहीं है; क्योंकि श्रद्धान करो या न करो, आप है सो आप है ही, पर है सो पर है। तथा आस्रवादिकका श्रद्धान हो तो आस्रव-बन्धका अभाव करके संवरनिर्जरारूपउपायसे मोक्षपद को प्राप्त करे। तथा जो आपापर का भी श्रद्धान कराते हैं; सो उसी प्रयोजनके अर्थ कराते हैं; इसलिये आस्रवादिकके श्रद्धानसहित आपापर का जानना व आपका जानना कार्यकारी है।
यहाँ प्रश्न है कि ऐसा है तो शास्त्रोंमें आपापरके श्रद्धानको व केवल आत्मा के तथा श्रद्धान ही को सम्यक्त्व कहा व कार्यकारी कहा; तथा नवतत्त्व की संतति छोड़कर हमारे एक आत्मा ही होओ - ऐसा कहा, सो किस प्रकार कहा ?
समाधान :- जिसके सच्चा आपापर का श्रद्धान व आत्मा का श्रद्धान हो, उसके सातों तत्त्वोंका श्रद्धान होता ही होता है। तथा जिसके सच्चा सात तत्त्वोंका श्रद्धान हो उसके आपापर का व आत्माका श्रद्धान होता ही होता है - ऐसा परस्पर अविनाभावीपना जानकर आपापरके श्रद्धानको या आत्मश्रद्धानही को सम्यक्त्व कहा है।
तथा इस छलसे कोई सामान्यरूपसे आपापरको जानकर व आत्मा को जानकर कृतकृत्यपना माने, तो उसके भ्रम है; क्योंकि ऐसा कहा है :
“निर्विशेषं हि सामान्यं भवेत्खरविषाणवत्"' इसका अर्थ यह है :- विशेष रहित सामान्य है सो गधेके सींग समान है।
इसलिये प्रयोजनभूत आस्रवादिक विशेषों सहित आपापरका व आत्मा का श्रद्धान करना योग्य है। अथवा सातों तत्त्वार्थोके श्रद्धानसे रागादिक मिटाने के अर्थ परद्रव्योंको भिन्न भाता है व अपने आत्मा ही को भाता है, उसके प्रयोजन की सिद्धि होती है; इसलिये मुख्यतासे भेदविज्ञान को व आत्मज्ञान को कार्यकारी कहा है।
तथा तत्त्वार्थ-श्रद्धान किये बिना सर्व जानना कार्यकारी नहीं है, क्योंकि प्रयोजन तो रागादिक मिटानेका है; सो आस्रवादिकके श्रद्धान बिना यह प्रयोजन भासित नहीं होता;
'आलापपद्धति, श्लोक ९
Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com