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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates नौवाँ अधिकार] [३२३ हो उसके आत्मज्ञान कैसे नहीं होगा? होता ही होता है। इस प्रकार किसी भी मिथ्यादृष्टिके सच्चा तत्त्वश्रद्धान सर्वथा नहीं पाया जाता, इसलिये उस लक्षणमें अतिव्याप्ति दूषण नहीं लगता। तथा जो यह तत्त्वार्थश्रद्धान लक्षण कहा, सो असम्भवी भी नहीं है; क्योंकि सम्यक्त्वका प्रतिपक्षी मिथ्यात्वका यह नहीं है; उसका लक्षण इससे विपरीततासहित है। इसप्रकार अव्याप्ति, अतिव्याप्ति, असम्भवपनेसे रहित सर्व सम्यग्दृष्टियोंमें तो पाया जाये और किसी मिथ्यादृष्टिमें न पाया जाये - ऐसा सम्यग्दर्शनका सच्चा लक्षण तत्त्वार्थश्रद्धान है। सम्यक्त्वके विभिन्न लक्षणोंका समन्वय फिर प्रश्न उत्पन्न होता है कि यहाँ सातों तत्त्वोंके श्रद्धान का नियम कहते हो सो नहीं बनता। क्योंकि कहीं पर से भिन्न अपने श्रद्धान ही को सम्यक्त्व कहते हैं। समयसार में 'एकत्वे नियतस्य' इत्यादि कलश है – उसमें ऐसा कहा है कि इस आत्माका परद्रव्यसे भिन्न अवलोकन वही नियम से सम्यग्दर्शन है; इसलिये नवतत्त्व की संततिको छोड़कर हमारे यह एक आत्मा ही होओ। तथा कहीं एक आत्मा के निश्चयही को सम्यक्त्व कहते हैं। पुरुषार्थसिद्धयुपाय में 'दर्शनमात्मविनिश्चितिः' ऐसा पद है, सो उसका यही अर्थ है। इसलिये जीव-अजीवही का व केवल जीवहीका श्रद्धान होने पर सम्यक्त्व होता है, सातोंके श्रद्धानका नियम होता तो ऐसा किसलिये लिखते ? । समाधान :- परसे भिन्न अपना श्रद्धान होता है, सो आस्रवादिकके श्रद्धानसे रहित होता है या सहित होता है ? यदि रहित होता है, तो मोक्षके श्रद्धान बिना किस प्रयोजन के अर्थ ऐसा उपाय करता है ? संवर-निर्जराके श्रद्धान बिना रागादिक रहित होकर स्वरूपमें उपयोग लगानेका किसलिये उद्यम रखता है ? आस्रव-बन्धके श्रद्धान बिना पूर्व अवस्थाको किसलिये छोड़ता है ? इसलिये आस्रवादिकके श्रद्धानरहित आपापरका श्रद्धान करना सम्भवित नहीं है। तथा यदि आस्रवादिकके श्रद्धान सहित होता है, तो स्वयमेव ही सातों तत्त्वोंके श्रद्धानका नियम हुआ। तथा केवल आत्मा का निश्चय है, सो पर का पररूप श्रद्धान हुए बिना आत्मा का श्रद्धान नहीं होता, इसलिये अजीवका श्रद्धान होने पर ही जीव का श्रद्धान होता है। एकत्वे नियतस्यशुद्धनयतो व्याप्तुर्यदस्यात्मनः, पूर्णज्ञानघनस्य दर्शनमिह द्रव्यान्तरेभ्यः पृथक् । सम्यग्दर्शनमेतदेव नियमादात्मा च तावानयम् , तन्मुक्त्वा नवतत्त्वमसन्ततिमिमामात्मायमेकोऽस्तु नः ।।६।। [समयसार कलश] दर्शनमात्मविनिश्चितिरात्मपरिज्ञानमिष्यते बोधः । स्थितिरात्मनि चारित्रं कुत एतेभ्यो भवति बन्धः ।। २१६ ।। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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