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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates ३२२] [मोक्षमार्गप्रकाशक हुआ; इसीसे परमावगाढ़ सम्यक्त्व कहा। जो पहले श्रद्धान किया था, उसको झूठ जाना होता तो वहाँ अप्रतीति होती; सो तो जैसा सप्त तत्त्वोंका श्रद्धान छद्मस्थके हुआ था, वैसा ही केवली-सिद्ध भगवान के पाया जाता है; इसलिये ज्ञानादिककी हीनता-अधिकता होनेपर भी तिर्यंचादिक व केवली-सिद्ध भगवान के सम्यक्त्वगुण समान ही कहा है। तथा पूर्व अवस्था में यह माना था कि संवर-निर्जरासे मोक्ष का उपाय करना। पश्चात् मुक्त अवस्था होने पर ऐसा मानने लगे कि संवर-निर्जरासे हमारे मोक्ष हुआ पहले ज्ञान की हीनतासे जीवादिकके थोड़े विशेष जाने थे, पश्चात् केवलज्ञान होने पर उनके सर्व विशेष जाने; परन्त मलभत जीवादिकके स्वरूप का श्रद्धान जैसा छद्मस्थके पाया जाता है वैसा ही केवलीके पाया जाता है। तथा यद्यपि केवली-सिद्ध भगवान अन्य पदार्थों को भी प्रतीति सहित जानते हैं, तथापि वे पदार्थ प्रयोजन भूत नहीं हैं; इसलिये सम्यक्त्वगुणमें सप्त तत्त्वों ही का श्रद्धान ग्रहण किया है। केवली-सिद्धभगवान रागादिरूप नहीं परिणमित होते,, संसार अवस्था को नहीं चाहते; सो यह इस श्रद्धानका बल जानना। फिर प्रश्न है कि सम्यग्दर्शन को तो मोक्षमार्ग कहा था, मोक्षमें इसका सद्भाव कैसे कहते हैं ? उत्तर :- कोई कारण ऐसा भी होता है जो कार्य सिद्ध होनेपर भी नष्ट नहीं होता। जैसे – किसी वृक्षके किसी एक शाखासे अनेक शाखा युक्त अवस्था हुई, उसके होनेपर वह एक शाखा नष्ट नहीं होती; उसी प्रकार किसी आत्मा के सम्यक्त्वगुणसे अनेक गुणयुक्त मुक्त अवस्था हुई, उसके होनेपर सम्यक्त्वगुण नष्ट नहीं होता। इस प्रकार केवली-सिद्ध भगवान के भी तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षण सम्यक्त्व ही पाया जाता है, इसलिये वहाँ अव्याप्तिपना नहीं है। फिर प्रश्न :- मिथ्यादृष्टिके भी तत्त्वश्रद्धान होता है ऐसा शास्त्रमें निरूपण है। प्रवचनसारमें आत्मज्ञानशुन्य तत्त्वार्थश्रद्धान अकार्यकारी कहा है; इसलिये सम्यक्त्वका लक्षण तत्त्वार्थश्रद्धान करने पर उसमें अतिव्याप्ति दूषण लगता है ? समाधान :- मिथ्यादृष्टिके जो तत्त्वश्रद्धान कहा है, वह नामनिपेक्षसे कहा है - जिसमें तत्त्वश्रद्धान का गुण नहीं, और व्यवहार में जिसका नाम तत्त्वश्रद्धान कहा जाये वह मिथ्यादृष्टि के होता है; अथवा आगमद्रव्यनिपेक्षसे होता है - तत्त्वार्थश्रद्धानके प्रतिपादक शास्त्रोंका अभ्यास करता है, उनका स्वरूप निश्चय करने में उपयोग नहीं लगाता है - ऐसा जानना। तथा यहाँ सम्यक्त्व का लक्षण तत्त्वार्थश्रद्धान कहा है, सो भावनिक्षेपसे कहा है। ऐसा गुणसहित सच्चा तत्त्वार्थश्रद्धान मिथ्यादृष्टिके कदाचित् नहीं होता। तथा आत्मज्ञानशून्य तत्त्वार्थश्रद्धान कहा है वहाँ भी वही अर्थ जानना। जिसके सच्चे जीवअजीवादिका श्रद्धान Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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