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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates नौवाँ अधिकार] [३२१ श्रद्धान ऐसा ही रहा करता है। उसी प्रकार इस आत्मा को ऐसी प्रतीति है कि ' मैं आत्मा हूँ पुद्गलादि नहीं हूँ, मेरे आस्रवसे बन्ध हुआ है, सो अब संवर करके, निर्जरा करके, मोक्षरूप होना'। तथा वही आत्मा अन्य विचारादिरूप प्रवर्तता है तब उसके ऐसा विचार नहीं होता, परन्तु श्रद्धान ऐसा ही रहा करता है। फिर प्रश्न है कि ऐसा श्रद्धान रहता है तो बन्ध होने के कारणोंमें कैसे प्रवर्तता है ? उत्तर :- जैसे वही मनुष्य किसी कारणके वश रोग बढ़ने के कारणोंमेंभी प्रवर्तता है, व्यापारादिक कार्य व क्रोधादिक कार्य करता है, तथापि उस श्रद्धान का उसके नाश नहीं होता; उसी प्रकार वही आत्मा कर्म उदय निमित्तके वश बन्ध होनेके कारणोंमें भी प्रवर्तता है, विषय-सेवनादि कार्य व क्रोधादि कार्य करता है, तथापि उस श्रद्धान का उसके नाश नहीं होता। इसका विशेष निर्णय आगे करेंगे। इसप्रकार सप्त तत्त्व का विचार न होने पर भी श्रद्धान का सद्भाव पाया जाता है, इसलिये वहाँ अव्याप्तिपना नहीं है। फिर प्रश्न :- उच्च दशामें जहाँ निर्विकल्प आत्मानुभव होता है वहाँ तो सप्त तत्त्वादिकके विकल्पका भी निषेध किया है। सो सम्यक्त्व के लक्षण का निषेध करना कैसे सम्भव है ? और वहाँ निषेध सम्भव है तो अव्याप्ति दूषण आया ? उत्तर :- निचली दशामें सप्ततत्त्वोंके विकल्पोंमें उपयोग लगाया, उससे प्रतीति को केया और विषयादिकसे उपयोग छुड़ाकर रागादि घटाये। तथा कार्य सिद्ध होनेपर कारणोंका भी निषेध करते हैं; इसलिये जहाँ प्रतीति भी दृढ़ हुई और रागादिक दूर हुए, वहाँ उपयोग भ्रमानेका खेद किसलिये करें ? इसलिये वहाँ उन विकल्पोंका निषेध किया है। तथा सम्यक्त्वका लक्षण तो प्रतीति ही है; सो प्रतीति का तो निषेध नहीं किया। यदि प्रतीति छुड़ायी हो तो इस लक्षण का निषेध किया कहा जाये, सो तो है नहीं। सातों तत्त्वोंकी प्रतीति वहाँ भी बनी रहती है, इसलिये यहाँ अव्याप्तिपना नहीं है। फिर प्रश्न है कि छद्मस्थके तो प्रतीति-अप्रतीतिकहना सम्भव है, इसलिये वहाँ सप्ततत्त्वों की प्रतीति सम्यक्त्व का लक्षण कहा सो हमने माना; परन्तु केवली-सिद्ध भगवान के तो सर्वका जानपना समानरूप है, वहाँ सप्त तत्त्वों की प्रतीति कहना सम्भव नहीं है, और उनके सम्यक्त्वगुण पाया ही जाता है, इसलिये वहाँ उस लक्षणका अव्याप्तिपना आया ? समाधान :- जैसे छद्मस्थके श्रृतज्ञानके अनुसार प्रतीति पायी जाती है, उसी प्रकार केवली-सिद्धभगवानके केवलज्ञानके अनुसार प्रतीति पायी जाती है। जो सप्ततत्त्वों का स्वरूप पहले ठीक किया था, वही केवलज्ञान द्वारा जाना, वहाँ प्रतीति का परमावगाढ़पना Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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