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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates नौवाँ अधिकार] [३२५ तब, केवल जाननेही से मानको बढ़ाता है; रागादिक नहीं छोड़ता, तब उसका कार्य कैसे सिद्ध होगा? तथा नवतत्त्व संततिका छोड़ना कहा है; सो पूर्वमें नवतत्त्वके विचारसे सम्यग्दर्शन हुआ, पश्चात् निर्विकल्प दशा होने के अर्थ नवतत्त्वोंके भी विकल्प छोड़नेकी चाह की। तथा जिसके पहले ही नवतत्त्वोंका विचार नहीं है, उसको वह विकल्प छोड़नेका क्या प्रयोजन है ? अन्य अनेक विकल्प आपके पाये जाते हैं उन्हीं का त्याग करो। इस प्रकार आपापर के श्रद्धान में व आत्मश्रद्धानमें साततत्त्वोंके श्रद्धान की सापेक्षता पायी जाती है, इसलिये तत्त्वार्थश्रद्धान सम्यक्त्व का लक्षण है। फिर प्रश्न है कि कहीं शास्त्रोंमें अरहन्त देव, निर्ग्रन्थ गुरु, हिंसारहित धर्मके श्रद्धान को सम्यक्त्व कहा है, सो किस प्रकार है ? समाधान :- अरहन्त देवादिकके श्रद्धानसे कुदेवादिकका श्रद्धान दूर होने के कारण गहीतमिथ्यात्वका अभाव होता है. उस अपेक्षा इसको सम्यक्त्व कहा है। सर्वथा सम्यक्त्वका लक्षण यह नहीं है; क्योंकि द्रव्यलिंगी मुनि आदि व्यवहार धर्मके धारक मिथ्यादृष्टिोंके भी ऐसा श्रद्धान होता है। अथवा जैसे अणुव्रत, महाव्रत होने पर तो देशचारित्र, सकलचारित्र हो या न हो; परन्तु अणुव्रत, महाव्रत हुए बिना देशचारित्र, सकलचारित्र कदाचित् नहीं होता; इसलिये इन व्रतोंको अनवयरूप कारण जानकर कारणमें कार्यका उपचार करके इनको चारित्र कहा है। उसी प्रकार अरहन्त देवादिकका श्रद्धान होनेपर तो सम्यक्त्व हो या न हो; परन्तु अरहन्तादिकका श्रद्धान हुए बिना तत्त्वार्थश्रद्धानरूप सम्यक्त्व कदाचित् नहीं होता; इसलिये अरहन्तादिकके श्रद्धानको अनवयरूप कारण जानकर कारणमें कार्यका उपचार करके इस श्रद्धानको सम्यक्त्व कहा है। इसीसे इसका नाम व्यवहार सम्यक्त्व है। अथवा जिसके तत्त्वार्थश्रद्धान हो, उसके सच्चे अरहन्तादिकके स्वरूपका श्रद्धान होता ही होता है। तत्त्वार्थश्रद्धान बिना पक्षसे अरहन्तादिकका श्रद्धान करे, परन्तु यथावत् स्वरूप की पहिचान सहित श्रद्धान नहीं होता। तथा जिसके सच्चे अरहन्तादिकके स्वरूपका श्रद्धान हो, उसके तत्त्वश्रद्धान होता ही होता है; क्योंकि अरहन्तादिकका स्वरूप पहिचाननेसे जीवअजीव-आस्रवादिककी पहिचान होती है। इसप्रकार इनको परस्पर अविनाभावी जानकर कहीं अरहन्तादिकके श्रद्धानको सम्यक्त्व कहा है। यहाँ प्रश्न है कि नारकादि जीवोंके देव-कुदेवादिकका व्यवहार नहीं है और उनके सम्यक्त्व पाया जाता है; इसलिये सम्यक्त्व होनेपर अरहन्तादिकका श्रद्धान होता ही होता है, ऐसा नियम सम्भव नहीं है ? Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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