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[मोक्षमार्गप्रकाशक
ऐसा 'द्रव्य' व 'गुण-पर्याय' उसका नाम अर्थ है। तथा 'तत्त्वेन अर्थस्तत्त्वार्थः' तत्त्व अर्थात् अपना स्वरूप, उससे सहित पदार्थ उनका श्रद्धान सो सम्यग्दर्शन है। यहाँ यदि तत्त्वश्रद्धान ही कहते तो जिसका यह भाव (तत्त्व) है, उसके श्रद्धान बिना केवल भाव ही का श्रद्धान कार्यकारी नहीं है। तथा यदि अर्थश्रद्धान ही कहते तो भाव के श्रद्धान बिना पदार्थ का श्रद्धान भी कार्यकारी नहीं है।
जैसे - किसी को ज्ञान-दर्शनादिक व वर्णादिकका तो श्रद्धान हो - यह जानपना है, यह श्वेतपना है, इत्यादि प्रतीति हो; परन्तु ज्ञान-दर्शन आत्मा का स्वभाव है, मैं आत्मा हूँ; तथा वर्णादि पुद्गल का स्वभाव है, पुद्गल मुझ से भिन्न-अलग पदार्थ है; ऐसा पदार्थ का श्रद्धान न हो तो भाव का श्रद्धान कार्यकारी नहीं है। तथा जैसे मैं आत्मा हूँ' ऐसा श्रद्धान किया; परन्तु आत्मा का स्वरूप जैसा है वैसा श्रद्धान नहीं किया तो भाव के श्रद्धान बिना पदार्थ का भी श्रद्धान कार्यकारी नहीं है। इसलिये तत्त्वसहित अर्थका श्रद्धान होता है सो ही कार्यकारी है। अथवा जीवादिकको तत्त्वसंज्ञा भी है और अर्थ संज्ञा भी है, इसलिये 'तत्त्वमेवार्थस्तत्त्वार्थः' जो तत्त्व सो ही अर्थ, उनका श्रद्धान सो सम्यग्दर्शन है।
इस अर्थ द्वारा कहीं तत्त्वश्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहे और कहीं पदार्थश्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहे, वहाँ विरोध नहीं जानना।
इसप्रकार 'तत्त्व' और 'अर्थ' दो पद कहनेका प्रयोजन है।
तत्त्वार्थ सात ही क्यों ?
फिर प्रश्न है कि तत्त्वार्थ तो अनन्त हैं। वे सामान्य अपेक्षासे जीव-अजीवमें सर्व गर्भित हुए; इसलिये दो ही कहना थे या अनन्त कहना थे। आस्रवादिक तो जीव-अजीवही के विशेष हैं, इनको अलग कहने का प्रयोजन क्या ?
समाधान :- यदि यहाँ पदार्थ श्रद्धान करनेका ही प्रयोजन होता तब तो सामान्यसे या विशेष से जैसे सर्व पदार्थों का जानना हो, वैसे ही कथन करते; वह तो यहाँ प्रयोजन है नहीं; यहाँ तो मोक्षका प्रयोजन है। सो जिन सामान्य या विशेष भावोंका श्रद्धान करने से मोक्ष हो और जिनका श्रद्धान किये बिना मोक्ष न हो; उन्हीं का यहाँ निरूपण किया है।
सो जीव-अजीव यह दो तो बहुत द्रव्योंकि एक जाति अपेक्षा सामान्यरूप तत्त्व कहे। यह दोनों जाति जाननेसे जीवको आपापर का श्रद्धान हो – तब परसे भिन्न अपने को जाने, अपने हित के अर्थ मोक्षका उपाय करे; और अपनेसे भिन्न परको जाने, तब परद्रव्य से उदासीन होकर रागादिक त्यागकर मोक्षमार्गमें प्रवर्ते। इसलिये इन दो जातियोंका श्रद्धान होने पर ही मोक्ष होता है और दो जातियाँ जाने बिना आपापर का श्रद्धान न हो तब पर्यायबुद्धिसे संसारिक प्रयोजन ही का उपाय करता है। परद्रव्यमें रागद्वेषरूप होकर प्रवर्ते,
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