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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates नौवाँ अधिकार] [३१५ जाता है; इसलिये यह 'अतिव्याप्ति' लक्षण है। इसके द्वारा आत्मा को पहिचानने से आकाशादिकभी आत्मा हो जायेंगे; यह दोष लगेगा। तथा जो किसी लक्ष्यमें तो हो और किसी में न हो, ऐसे लक्ष्यके एक देश में पाया जाये - ऐसा लक्षण जहाँ कहा जाये वहाँ अव्याप्तिपना जानना। जैसे - आत्मा का लक्षण केवलज्ञानादि कहा जाये; सो केवलज्ञान किसी आत्मा में तो पाया जाता है, किसी में नहीं पाया जाता; इसलिये यह 'अव्याप्त' लक्षण है। इसके द्वारा आत्मा को पहिचानने से अल्पज्ञानी आत्मा नहीं होगा, यह दोष लगेगा। तथा जो लक्ष्यमें पाया ही नहीं जाये, ऐसा लक्षण जहाँ कहा जाये - वहाँ असम्भवपना जानना। जैसे - आत्माका लक्षण जड़पना कहा जाये; सो प्रत्यक्षादि प्रमाणसे ह विरुद्ध है; क्योंकि यह 'असम्भव' लक्षण है। इसके द्वारा आत्मा माननेसे पुदगलादिक आत्मा हो जायेंगे, और आत्मा है वह अनात्मा हो जायेगा; यह दोष लगेगा। इसप्रकार अतिव्याप्त, अव्याप्त तथा असम्भवी लक्षण हो वह लक्षणाभास है। तथा लक्ष्य में तो सर्वत्र पाया जाये और अलक्ष्य में कहीं न पाया जाये वह सच्चा लक्षण है। जैसे त्मा का स्वरूप चैतन्य है; सो यह लक्षण सर्व ही आत्मा में तो पाया जाता है, अनात्मा में कहीं नहीं पाया जाता; इसलिये यह सच्चा लक्षण है। इसके द्वारा आत्मा मानने से आत्मा-अनात्मा का यथार्थ ज्ञान होता है; कुछ दोष नहीं लगता। इसप्रकार लक्षण का स्वरूप उदाहरण मात्र कहा। अब, सम्यग्दर्शनादिकका सच्चा लक्षण कहते हैं : सम्यग्दर्शनका सच्चा लक्षण विपरीताभिनिवेशरहित जीवादिकतत्त्वार्थश्रद्धान वह सम्यग्दर्शनका लक्षण है। जीव अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष यह सात तत्त्वार्थ हैं। इनका जो श्रद्धान - 'ऐसा ही है, अन्यथा नहीं है' - ऐसा प्रतीति भाव, सो तत्त्वार्थश्रद्धान; तथा विपरीताभिनिवेश जो अन्यथा अभिप्राय उससे रहित; सो सम्यग्दर्शन है। यहाँ विपरीताभिनिवेशके निराकरण के अर्थ 'सम्यक् ' पद कहा है, क्योंकि 'सम्यक्' ऐसा शब्द प्रशंसावाचक है; वहाँ श्रद्धान में विपरीताभिनिवेशका अभाव होने पर ही प्रशंसा सम्भव है ऐसा जानना। यहाँ प्रश्न है कि 'तत्त्व' और 'अर्थ' यह दो पद कहे , उनका प्रयोजन क्या ? समाधान :- 'तत्' शब्द है सो ‘यत्' शब्द की अपेक्षा सहित है, इसलिये जिसका प्रकरण हो उसे तत् कहा जाता है और जिसका जो भाव अर्थात् स्वरूप सो तत्त्व जानना। कारण कि 'तस्य भावस्तत्त्वं' ऐसा तत्त्व शब्द का समास होता है। तथा जो जानने में आये Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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