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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates नौवाँ बअधिकार ] [ ३०७ नाश होनेपर उनका बल नहीं है, अंतर्मुहूर्तकालमें अपने आप नाशको प्राप्त होते हैं; परन्तु सहकारी कारण भी दूर हो जाये तब प्रगटरूपन निराकुल दशा भासित होती है। वहाँ केवलज्ञानी भगवान अनन्तसुखरूप दशाको प्राप्त कहे जाते हैं। तथा अघाति कर्मोंके उदयके निमित्तसे शरीरादिकका संयोग होता है; वहाँ मोहकर्मका उदय होनेसे शरीरादिकका संयोग आकुलताको बाह्य सहकारी कारण है । अन्तरंग मोहके उदय से रागादिक हों, और बाह्य अघाति कर्मों के उदयसे रागादिकके कारण शरीरादिकका संयोग हो तब आकुलता उत्पन्न होती है। तथा मोहके उदय का नाश होनेपर भी अघाति कर्मका उदय रहता है, वह कुछ भी आकुलता उत्पन्न नहीं कर सकता; परन्तु पूर्वमें आकुलता का सहकारी कारण था, इसलिये अघाति कर्मका भी नाश आत्मा को इष्ट ही है। केवलीको इनके होने पर भी कुछ दुःख नहीं है, इसलिये इनके नाश का उद्यम भी नहीं है; परन्तु मोहका नाश होनेपर यह कर्म अपने आप थोड़े ही कालमें सर्वनाशको प्राप्त हो जाते हैं 1 इसप्रकार सर्व कर्मोंका नाश होना आत्माका हित है। तथा सर्व कर्मके नाशहीका नाम मोक्ष है। इसलिये आत्माका हित एक मोक्षही है, और कुछ नहीं ऐसा निश्चय करना । यहाँ कोई कहे संसारदशामें पुण्यकर्म का उदय होनेपर भी जीव सुखी होता है; इसलिये केवल मोक्षही हित है ऐसा किसलिये कहते समाधान :- संसारदशामें सुख तो सर्वथा है ही नहीं; दुःख ही है । परन्तु किसी के कभी बहुत दुःख होता है, किसी के कभी थोड़ा दुःख होता है, सो पूर्वमें बहुत दुःख था व अन्य जीवों के बहुत दुःख पाया जाता है, उस अपेक्षा से थोड़े दुःख वाले को सुखी कहते हैं। तथा उसी अभिप्राय से थोड़े दुःखवाला अपनेको सुखी मानता है; परमार्थसे सुख है नहीं । तथा यदि थोड़ा भी दुःख सदाकाल रहता हो तो उसे भी हितरूप ठहरायें, सो वह भी नहीं है; थोड़े कालही पुण्य का उदय रहता है, और वहाँ थोड़ा दुःख होता है, बहुत दुःख हो जाता है; इसलिये संसार अवस्था हितरूप नहीं है। पश्चात् — जैसे किसीको विषमज्वर है; उसको कभी असाता बहुत होती है, कभी थोड़ी होती है। थोड़ी असाता होतो वह अपनेको अच्छा मानता है । लोगभी कहते हैं अच्छा है; परन्तु परमार्थसे जबतक ज्वरका सद्भाव है तबतक अच्छा नहीं है । उसीप्रकार संसारीको मोहका उदय है; उसको कभी आकुलता बहुत होती है, कभी थोड़ी आकुलता हो तब वह अपने को सुखी मानता है। लोग भी कहते हैं परमार्थसे जबतक मोहका सद्भाव है तबतक सुख नहीं है । Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com - होती है। थोड़ी सुखी है; परन्तु
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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