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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates ३०६] [ मोक्षमार्गप्रकाशक सो यहाँ आत्मद्रव्यका ऐसा ही स्वभाव जानना। और तो सर्व अवस्थाओंको सह सकता है, एक दुःखको नहीं सह सकता। परवशता से दुःख हो तो यह क्या करे, उसे भोगता है; परन्तु स्ववशतासे किंचित् भी दुःखको सहन नहीं करता। तथा संकोचविस्तारादि अवस्था जैसी हो वैसी होओ, उसे स्ववशता से भी भोगता है; वहाँ स्वभाव में तर्क नहीं है। आत्माका ऐसा ही स्वभाव जानना। देखो, दुःखी हो तब सोना चाहता है; वहाँ सोनेमें ज्ञानादिक मन्द हो जाते हैं, परन्तु जड सरीखा भी होकर दःखको दर करना चाहता है। तथा मरना चाहता है; वहाँ मरने में अपना नाशमानता है, परन्तु अपना अस्तित्व खोकर भी दःख दूर करना चाहता है। इसलिये एक दुःखरूप पयार्यका अभाव करना ही इसका कर्तव्य है। तथा दुःख न हो वही सुख है; क्योंकि आकुलतालक्षणसहित दुःख उसका अभाव ही निराकुललक्षण सुख है; सो यह भी प्रत्यक्ष भासित होता है। बाह्य किसी सामग्री का संयोग मिलो - जिसके अंतरंगमें आकुलता है वह दुःखी ही है। जिसके आकुलता नहीं है वह सुखी है। तथा आकुलता होती है वह रागादिक कषाय भाव होने पर होती है; क्योंकि रागादिभावोंसे यह तो द्रव्योंको अन्य प्रकार परिणमित करना चाहे, और वे द्रव्य अन्य प्रकार परिणमित हों; तब इसके आकलता होती है। वहाँ या तो अपने रागादि दर चाहे उसी प्रकार सर्वद्रव्य परिणमित हों तो आकुलता मिटे; परन्तु स्वद्रव्य तो इसके आधीन नहीं है। कदाचित् कोई द्रव्य जैसी इसकी इच्छा हो उसी प्रकार परिणमित हो, तब भी इसकी आकुलता सर्वथा दूर नहीं होती; सर्व कार्य जैसे वह चाहे वैसे ही हों, अन्यथा न हों, तब वह निराकुल रहे; परन्तु यह तो हो ही नहीं सकता, क्योंकि किसी द्रव्य का परिणमन किसी द्रव्य के आधीन नहीं है। इसलिये अपने रागादिभाव दूर होने पर निराकुलता हो; सो यह कार्य बन सकता है; क्योंकि रागादिभाव आत्मा के स्वभाव भाव तो हैं नहीं, औपाधिकभाव हैं, परनिमित्तसे हुए हैं, और वह निमित्त मोहकर्मका उदय है; उसका अभाव होने पर सर्व रागादिक विलय हो जायें तब आकुलता का नाश होने पर दुःख दूर हो, सुखकी प्राप्ति हो। इसलिये मोहकर्मका नाश हितकारी है। तथा उस आकुलता का सहकारी कारण ज्ञानावरणादिकका उदय है। ज्ञानावरण, दर्शनावरणके उदयसे ज्ञान-दर्शन सम्पूर्ण प्रगट नहीं होते; इसलिये इसको देखने-जानने की आकुलता होती है। अथवा यथार्थ सम्पूर्ण वस्तु का स्वभाव नहीं जानता तब रागादिरूप होकर प्रवर्तता है, वहाँ आकुलता होती है। तथा अंतरायके उदय से इच्छानुसार दानादि कार्य न बनें, तब आकुलता होती है। उनका उदय है वह मोहका उदय होनेपर आकुलताको सहकारी कारण है; मोहके उदयका Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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