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[मोक्षमार्गप्रकाशक
तथा सुनो, संसारदशामें भी आकुलता घटने पर सुख नाम पाता है, आकुलता बढ़नेपर दुःख नाम पाता है; कहीं बाह्य सामग्रीसे सुख-दुःख नहीं है। जैसे - किसी दरिद्रीको किंचित् धन की प्राप्ति हुई - वहाँ कुछ आकुलता घटनेसे उसे सुखी कहते हैं, और वह भी अपने को सुखी मानता है। तथा किसी बहुत धनवान को किंचित् धन की हानि हुई – वहाँ कुछ आकुलता बढ़नेसे उसे दुःखी कहते हैं, और वह भी अपनेको दु:खी मानता
इसी प्रकार सर्वत्र जानना।
तथा आकुलता घटना-बढ़नाभी बाह्य सामग्रीके अनुसार नहीं है, कषायभावोंके घटने-बढ़ने के अनुसार है। जैसे - किसीके थोड़ा धन है और उसे सन्तोष है, तो उसे आकुलता थोड़ी है; तथा किसी के बहुत धन है और उसके तृष्णा है, तो उसे आकुलता बहुत है। तथा किसी को किसी ने बहुत बुरा कहा और उसे क्रोध नहीं हुआ तो उसको आकुलता नहीं होती; और थोड़ी बातें कहनेसे ही क्रोध हो आये तो उसको आकुलता बहुत होती है। तथा जैसे गायको बछड़े से कुछ भी प्रयोजन नहीं है, परन्तु मोह बहुत है, इसलिये उसकी रक्षा करनेकी बहुत आकुलता होती है; तथा सुभटके शरीरादिकसे बहुत कार्य सधते हैं, परन्तु रण में मानादिकके कारण शरीरादिकसे मोह घट जाये, तब मरनेकी भी थोड़ी आकुलता होती है। इसलिये ऐसा जानना कि संसार अवस्थामें भी आकुलता घटने-बढ़नेसे ही सुख-दःख माने जाते हैं। तथा आकुलताका घटना-बढ़ना रागादिक कषाय घटने-बढ़नेके अनसार है।
तथा परद्रव्यरूप बाह्यसामग्री के अनुसार सुख-दुःख नहीं है। कषायसे इसके इच्छा उत्पन्न हो और इसकी इच्छा अनुसार बाह्यसामग्री मिले, तब इसके कुछ कषाय का उपशमन होने से आकुलता घटती है, तब सुख मानता है - और इच्छानुसार सामग्री नहीं मिलती, तब कषाय बढ़नेसे आकुलता बढ़ती है, और दुःख मानता है। सो है तो इसप्रकार; परन्तु यह जानता है कि मुझे परद्रव्य के निमित्तसे सुख-दुःख होते हैं। ऐसा जानना भ्रम ही है। इसलिये यहाँ ऐसा विचार करना कि संसार अवस्थामें किंचित कषाय घटने से सुख मानते हैं, उसे हित जानते हैं; - तो जहाँ सर्वथा कषाय दूर होनेपर व कषायके कारण दूर होने पर परम निराकुलता होनेसे अनन्त सुख प्राप्त होता है - ऐसी मोक्ष अवस्थाको कैसे हित न माने?
तथा संसार अवस्थामें उच्चपदको प्राप्त करे तो भी या तो विषयसामग्री मिलाने की आकुलता होती है, या विषम सेवन की आकुलता होती है, या अपने को अन्य किसी क्रोधादि कषाय से इच्छा उत्पन्न हो उसे पूर्ण करनेकी आकुलता होती है; कदापि सर्वथा निराकुल नहीं हो सकता; अभिप्रायमें तो अनेक प्रकार की आकुलता बनी ही रहती है। और
आकुलता मिटानेके बाह्य उपाय करे; सो प्रथम तो कार्य सिद्ध नहीं होता; और यदि
कोई
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