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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates आठवाँ अधिकार] [३०३ दोष ही है। अब, जिनमतमें तो एक रागादि मिटानेका प्रयोजन है; इसलिये कहीं बहुत रागादि छुड़ाकर थोड़े रागादि करानेके प्रयोजन का पोषण किया है, कहीं सर्व रागादि मिटानेके प्रयोजन का पोषण किया है; परन्तु रागादि बढ़ाने का प्रयोजन कहीं नहीं है, इसलिये जिनमत का सर्व कथन निर्दोष है। और अन्यमत में कहीं रागादि मिटाने के प्रयोजन सहित कथन करते हैं, कहीं रागादि बढ़ानेके प्रयोजन सहित कथन करते हैं; इसी प्रकार अन्य भी प्रयोजन की विरूद्धता सहित कथन करते हैं ,इसलिये अन्यमतका कथन सदोष है। लोक में भी एक प्रयोजन का पोषण करने वाले नाना कथन कहे उसे प्रामाणिक कहा जाता है और अन्य-अन्य प्रयोजन का पोषण करनेवाली बात करे उसे बावला कहते तथा जिनमत में नानाप्रकार के कथन हैं सो भिन्न-भिन्न अपेक्षा सहित हैं वहाँ दोष नहीं है। अन्यमतमें एक ही अपेक्षा सहित अन्य-अन्य कथन करते हैं वहाँ दोष है। जैसे - जिनदेवके वीतरागभाव हैं और समवसरणादि विभूति भी पायी जाती है, वहाँ विरोध नहीं है। समवसरणादि विभूति की रचना इन्द्रादिक करते हैं, उनको उसमें रागादिक नहीं है, इसलिये दोनों बातें सम्भवित है। और अन्यमत में ईश्वर को साक्षीभूत वीतराग भी कहते हैं तथा उसी के द्वारा किये गये काम-क्रोधादिभाव निरूपित करते हैं, सो एक आत्मा को ही वीतरागपना और काम-क्रोधादि भाव कैसे सम्भवित हैं ? इसीप्रकार अन्यत्र जानना। तथा काल दोष में जिनमत में एक ही प्रकारसे कोई कथन विरुद्ध लिखे हैं, सो यह तुच्छबुद्धियों कि भूल है, कुछ मतमें दोष नहीं है। वहाँ भी जिनमतका अतिशय इतना है कि प्रमाणविरुद्ध कथन कोई नहीं कर सकता। कहीं सौरीपुरमें, कहीं द्वारावतीमें नेमिनाथ स्वामी का जन्म लिखा है; सो कहीं भी हो, परन्तु नगरमें जन्म होना प्रमाणविरुद्ध नहीं है, आज भी होते दिखायी देते हैं। तथा अन्यमतमें सर्वज्ञादिक यथार्थ ज्ञानियोंके रचे हुए ग्रन्थ बतलाते हैं, परन्तु उनमें परस्पर विरुद्धता भासित होती है। कहीं तो बालब्रह्मचारी की प्रशंसा करते हैं. कहीं कहते हैं -'पुत्र बिना गति नहीं होती' – सो दोनों सच्चे कैसे हों ? ऐसे कथन वहाँ बहुत पाये जाते हैं। तथा उनमें प्रमाणविरुद्ध कथन पाये जाते हैं। जैसे - ‘मुखमें वीर्य गिरनेसे मछली के पुत्र हुआ', सो ऐसा इस काल में किसी के होता दिखायी नहीं देता, और अनुमान से भी नहीं मिलता - ऐसे कथन भी बहुत पाये जाते हैं। यदि यहाँ सर्वज्ञादिककी भूल मानें तो वे कैसे भूलेंगे? और विरुद्ध कथन मानने में नहीं आता; इसलिये उनके मतमें दोष ठहराते हैं। ऐसा जानकर एक जिनमत का ही उपदेश ग्रहण करने योग्य है। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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