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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates आठवाँ अधिकार] [३०२ पीछे मोक्ष गये। इसप्रकार प्रथमानुयोग और करणानुयोगका विरोध दूर होता है। तथा देवदेवांगना साथ उत्पन्न हुए, फिर देवांगना ने चयकर बीचमें अन्य पर्याय धारण की, उनका प्रयोजन न जानकर कथन नहीं किया। फिर वे साथ मनुष्यपर्यायमें उत्पन्न हुए। इसप्रकार विधि मिलाने से विरोध दूर होता है। इसीप्रकार अन्यत्र विधि मिला लेना। फिर प्रश्न है कि इसप्रकार के कथनोंमें भी किसी प्रकार विधि मिलती है। परन्तु कहीं नेमिनाथ स्वामी का सौरीपर में. कहीं द्वारावती में जन्म कहा; तथा रामचन्द्रादिककी कथा अन्य-अन्य प्रकारसे लिखी है इत्यादि; एकेन्द्रियादिको कहीं सासादन गुणस्थान लिखा, कहीं नहीं लिखा इत्यादि; - इन कथनोंकी विधि किस प्रकार मिलेगी? उत्तर :- इसप्रकार विरोध सहित कथन काल दोषसे हुए हैं। इस काल में प्रत्यक्षज्ञानी व बहुश्रुतोंका तो आभाव हुआ और अल्पबुद्धि ग्रंथ करने के अधिकारी हुए उनको भ्रम से कोई अर्थ अन्यथा भासित हुआ उसको ऐसे लिखा; अथवा इस काल में कितने ही जैनमत में भी कषायी हुए हैं सो उन्होनें कोई कारण पाकर अन्यथा कथन लिखे हैं। इसप्रकार अन्यथा कथन हुए, इसलिये जैनशास्त्रों में विरोध भासित होने लगा। जहाँ विरोध भासित हो वहाँ इतना करना कि यह कथन करने वाले बहुत प्रामाणिक हैं या यह कथन करने वाले बहुत प्रामाणिक हैं ? ऐसे विचार करके बड़े आचार्यादिकों का कहा हुआ कथन प्रमाण करना। तथा जिनमत के बहुत शास्त्र हैं उनकी आम्नाय मिलाना। जो कथन परम्परा आम्नाय से मिलें उस कथन को प्रमाण करना। इसप्रकार विचार करने पर भी सत्य-असत्य का निर्णय न हो सके तो 'जैसे केवली को भासित हुए हैं वैसे प्रमाण हैं' ऐसा मान लेना, क्योंकि देवादिकका व तत्त्वोंका निर्धार हुए बिना तो मोक्षमार्ग होता नहीं है। उसका तो निर्धार भी हो सकता है, इसलिये कोई उनका स्वरूप विरुद्ध कहे तो आप ही को भासित हो जायेगा। तथा अन्य कथन का निर्धार न हो, या संशयादि रहें, या अन्यथा भी जानपना हो जाये; और केवली का कहा प्रमाण है - ऐसा श्रद्धान रहे तो मोक्षमार्गमें विध्न नहीं है, ऐसा जानना। यहाँ कोई तर्क करे कि जैसे नानाप्रकार के कथन जिनमत में कहे हैं वैसे अन्यमत में भी कथन पाये जाते हैं। सो अपने मत के कथन का तो तुमने जिस-तिसप्रकार स्थापन किया और अन्यमत में ऐसे कथन को तुम दोष लगाते हो ? यह तो तुम्हे राग-द्वेष है ? समाधान :- कथन तो नाना प्रकार के हों और एक ही प्रयोजन का पोषण करें तो कोई दोष नहीं, परन्तु कहीं किसी प्रयोजनका और कहीं किसी प्रयोजन का पोषण करें तो Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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