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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates २७२] [मोक्षमार्गप्रकाशक उदाहरण :- जैसे - तीर्थंकर देवोंके कल्याणकोंमें इन्द्र आये, यह कथा तो सत्य है। तथा इन्द्रने स्तुतिकी, उसका व्याख्यान किया; सो इन्द्र ने तो अन्य प्रकारसे ही स्तुति की थी और यहाँ ग्रन्थकर्त्ताने अन्य ही प्रकार से स्तुति करना लिखा है; परन्तु स्तुतिरूप प्रयोजन अन्यथा नहीं हुआ। तथा परस्पर किन्हींके वचनालाप हुआ; वहाँ उनके तो अन्य प्रकार अक्षर निकले थे, यहाँ ग्रन्थकर्त्ताने अन्य प्रकार कहे; परन्तु प्रयोजन एक ही दिखलाते हैं। तथा नगर, वन, संग्रामादिकके नामादिक तो यथावत् ही लिखते हैं और वर्णन हीनाधिक भी प्रयोजनका पोषण करता हुआ निरूपित करते हैं। - इत्यादि इसी प्रकार जानना। तथा प्रसंगरूप कथा भी ग्रन्थकर्ता अपने विचारानुसार कहते हैं। जैसे – धर्मपरीक्षामें मूर्योकी कथा लिखी; सो वही कथा मनोवेगने कही थी ऐसा नियम नहीं है; परन्तु मूर्खपनेका पोषण करने वाली कोई कथा कही थी ऐसे अभिप्रायका पोषण करते हैं। इसी प्रकार अन्यत्र जानना। यहाँ कोई कहे - अयथार्थ कहना तो जैन शास्त्रमें सम्भव नहीं है ? उत्तर :- अन्यथा तो उसका नाम है जो प्रयोजन अन्यका अन्य प्रगट करे। जैसे - किसीसे कहा कि तू ऐसा कहना, उसने वे ही अक्षर तो नहीं कहे, परन्तु उसी प्रयोजन सहित कहे तो उसे मिथ्यात्वादी नहीं कहते - ऐसा जानना। यदि जैसा का तैसा लिखनेका सम्प्रदाय हो तो किसी ने बहुत प्रकार से वैराग्य चिन्तवन किया था उसका सर्व वर्णन लिखनेसे ग्रन्थ बढ़ जायेगा, तथा कुछ न लिखनेसे उसका भाव भासित नहीं होगा, इसलिये वैराग्यके ठिकाने थोड़ा-बहुत अपने विचारके अनुसार वैराग्य पोषक ही कथन करेंगे, सराग पोषक कथन नहीं करेंगे। वहाँ प्रयोजन अन्यथा नहीं हआ इसलिये अयथार्थ नहीं कहते। इसीप्रकार अन्यत्र जानना। तथा प्रथमानुयोगमें जिसकी मुख्यता हो उसी का पोषण करते हैं। जैसे - किसीने उपवास किया, उसका तो फल अल्प था, परन्तु उसे अन्य धर्मपरिणतिकी विशेषता हुई इसलिये विशेष उच्चपदकी प्राप्ति हुई, वहाँ उसको उपवासहीका फल निरूपित करते हैं। इसी प्रकार अन्य जानना। तथा जिस प्रकार किसीने शीलादिकी प्रतिज्ञा दृढ़ रखी व नमस्कारमन्त्रका स्मरण किया व अन्य धर्म साधन किया. उसके कष्ट दूर हए, अतिशय प्रगट हुए; वहाँ उन्हींका वैसा फल नहीं हुआ है, परन्तु अन्य किसी कर्मके उदयसे वैसे कार्य हुए हैं; तथापि उनको उन शीलादिकका ही फल निरूपित करते हैं। उसी प्रकार कोई पाप कार्य किया, उसको उसी का तो वैसा फल नहीं हुआ है, परन्तु अन्य कर्मके उदय से नीचगति को प्राप्त हुआ Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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