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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates आठवाँ अधिकार] [२७३ अथवा कष्टादिक हुए; उसे उसी पापकार्य का फल निरूपित करते हैं। इत्यादि इसी प्रकार जानना। यहाँ कोई कहे – ऐसा झूठा फल दिखलाना तो योग्य नहीं है; ऐसे कथनको प्रमाण कैसे करें ? समाधान :- जो अज्ञानी जीव बहुत फल दिखाये बिना धर्ममें न लगें व पाप से न डरें, उनका भला करने के अर्थ ऐसा वर्णन करते हैं। झूठ तो तब हो, जब धर्मके फलको पापका फल बतलायें, पापके फलको धर्मका फल बतलायें, परन्तु ऐसा तो है नहीं। जैसे - दस पुरुष मिलकर कोई कार्य करें, वहाँ उपचारसे एक पुरुषका भी किया कहा जाये तो दोष नहीं है। अथवा जिसके पितादिकने कोई कार्य किया हो, उसे एक जाति अपेक्षा उपचारसे पुत्रादिकका किया कहा जाये तो दोष नहीं है। उसी प्रकार बहुत शुभ व अशुभ कार्योंका एक फल हुआ, उसे उपचारसे एक शुभ व अशुभकार्यका फल कहा जाये तो दोष नहीं है। अथवा अन्य शुभ व अशुभकार्यका फल जो हुआ हो, उसे एक जाति अपेक्षा उपचार से किसी अन्य ही शुभ व अशुभकार्यका फल कहें तो दोष नहीं है। उपदेश में कहीं व्यवहारवर्णन है, कहीं निश्चयवर्णन है। यहाँ उपचाररूप व्यवहारवर्णन किया है, इसप्रकार इसे प्रमाण कहते हैं। इसको तारतम्य नहीं मान लेना; तारतम्यकातो करणानुयोगमें निरूपण किया है, सो जानना। तथा प्रथमानुयोगमें उपचाररूप किसी धर्मका अंग होनेपर सम्पूर्ण धर्म हुआ कहते है। जैसे - जिन जीवोंके शंका-कांक्षादिक नहीं हुए, उनको सम्यक्त्व हुआ कहते हैं; परन्तु किसी एक कार्य में शंका-कांक्षा न करने से ही तो सम्यक्त्व नहीं होता, सम्यक्त्व तो तत्त्वश्रद्धान होने पर होता है; परन्तु निश्चयसम्यक्त्वका तो व्यवहारसम्यक्त्वमें उपचार किया और व्यवहारसम्यक्त्वके किसी एक अंगमें सम्पूर्ण व्यवहारसम्यक्त्वका उपचार किया - इसप्रकार उपचार द्वारा सम्यक्त्व हुआ कहते हैं। तथा किसी जैनशास्त्रका एस अंग जानने पर सम्यग्ज्ञान हुआ कहते हैं। सो संशयादि रहित तत्वज्ञान होने पर सम्यग्ज्ञान होता है; परन्तु यहाँ पूर्ववत् उपचार से सम्यग्ज्ञान कहते तथा कोई भला आचरण होनेपर सम्यक्चारित्र हुआ कहते हैं। वहाँ जिसने जैनधर्म अंगीकार किया हो व कोई छोटी-मोटी प्रतिज्ञा ग्रहण की हो, उसे श्रावक कहते हैं। सो श्रावक तो पंचमगुणस्थानवर्ती होने पर होता है; परन्तु पूर्ववत् उपचारसे इसे श्रावक कहा है। उत्तरपुराणमें श्रेणिकको श्रावकोत्तम कहा है सो वह तो असंयत था; परन्तु जैन था इसलिये कहा है। इसीप्रकार अन्यत्र जानना। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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