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आठवाँ अधिकार]
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तथा जो जीव तत्त्वज्ञानी होकर चरणानुयोगका अभ्यास करते हैं, उन्हें यह सर्व आचरण अपने वीतरागभावके अनुसार भासित होते हैं। एकदेश व सर्वदेश वीतरागता होनेपर ऐसी श्रावकदशा-मुनिदशा होती है; क्योंकि इनके निमित्त-नैमित्तिकपना पाया जाता है। ऐसा जानकर श्रावक-मुनिधर्मके विशेष पहिचानकर जैसा अपना वीतरागभाव हुआ हो वैसा अपने योग्य धर्मको साधते हैं। वहाँ जितने अंशमें वीतरागता होती है, उसे कार्यकारी जानते है; जितने अंशमें राग रहता है, उसे हेय जानते हैं; सम्पूर्ण वीतरागताको परम धर्म मानते हैं।
ऐसा चरणानुयोगका प्रयोजन है।
द्रव्यानुयोगका प्रयोजन
अब द्रव्यानुयोगका प्रयोजन कहते हैं। द्रव्यानुयोगमें द्रव्योंका व तत्त्वोंका निरूपण करके जीवोंको धर्ममें लगाते हैं। जो जीव जीवादिक द्रव्योंको व तत्त्वोंको नहीं पहिचानते, आपको-परको भिन्न नहीं जानते; उन्हें हेतु-दृष्टान्त युक्ति द्वारा व प्रमाण-नयादि द्वारा उनका स्वरूप इस प्रकार दिखाया है जिससे उनको प्रतीति हो जाये। उसके अभ्याससे अनादि अज्ञानता दूर होती है। अन्यमत कल्पित तत्त्वादिक झूठ भासित हो तब जिनमत की प्रतीति हो और उनके भावको पहिचाननेका अभ्यास रखें, तो शीघ्रही तत्त्वज्ञान की प्राप्ति हो जाये।
तथा जिनके तत्त्वज्ञान हुआ हो वे जीव द्रव्यानुयोगका अभ्यास करें तो उन्हें अपने श्रद्धानके अनुसार वह सर्व कथन प्रतिभासित होते हैं। जैसे - किसी ने कोई विद्या सिख ली, परन्तु यदि उसका अभ्यास करता रहे तो वह याद रहती है, न करे तो भूल जाता है। इस प्रकार इसको तत्त्वज्ञान हुआ, परन्तु यदि उसके प्रतिपादक द्रव्यानुयोगका अभ्यास करता रहे तो वह तत्त्वज्ञान रहता है, न करे तो भूल जाता है। अथवा संक्षेपरूपसे तत्त्वज्ञान हुआ था, वह नाना युक्ति-हेतु-दृष्टान्तादि द्वारा स्पष्ट हो जाये तो उसमें शिथिलता नहीं हो सकती। तथा इस अभ्याससे रागादि घटने से शीघ्र मोक्ष सधता है।
इस प्रकार द्रव्यानुयोगका प्रयोजन जानना।
अनुयोगोंके व्याख्यानका विधान अब इन अनुयोगोंमें किस प्रकार व्याख्यान है, सो कहते हैं :प्रथमानुयोगके व्याख्यानका विधान
प्रथमानुयोगमें जो मूल कथाएँ हैं; वे तो जैसी हैं; वैसी ही निरूपित करते हैं। तथा उनमें प्रसंगोपात्त व्याख्यान होता है; वह कोई तो ज्योंका त्यों होता है, कोई ग्रन्थकर्ताके विचारानुसार होता है; परन्तु प्रयोजन अन्यथा नहीं होता।
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