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[ मोक्षमार्गप्रकाशक
तथा ऐसा सूक्ष्म यथार्थ कथन जिनमतमें ही है, अन्यत्र नहीं है; इसप्रकार महिमा जानकर जिनमतका श्रद्धानी होता है।
तथा जो जीव तत्त्वज्ञानी होकर इस करणानुयोगका अभ्यास करते हैं, उन्हें यह उसके विशेषणरूप भासित होता है। जो जीवादि तत्त्वोंको आप जानता है, उन्हींके विशेष करणानुयोगमें किये हैं; वहाँ कितने ही विशेषण तो यथावत् निश्चयरूप हैं, कितने ही उपचार सहित व्यवहाररूप हैं, कितने ही द्रव्य-क्षेत्र-काल भावादिकके स्वरूप प्रमाणादिरूप हैं, कितने ही निमित्त आश्रयादि अपेक्षा सहित हैं, – इत्यादि अनेक प्रकारके विशेषण निरूपित किये हैं, उन्हें ज्योंका त्यों मानता हुआ उस करणानुयोगका अभ्यास करता है।
इस अभ्याससे तत्त्वज्ञान निर्मल होता है। जैसे - कोई यह तो जानता था कि यह रत्न है; परन्तु उस रत्नके बहुत से विशेष जानने पर निर्मल रत्न का पारखी होता है; उसी प्रकार तत्त्वोंको जानता था कि यह जीवादिक हैं, परन्तु उन तत्त्वोंके बहुत विशेष जाने तो निर्मल तत्त्वज्ञान होता है। तत्त्वज्ञान निर्मल होने पर आप ही विशेष धर्मात्मा होता है।
तथा अन्य ठिकाने उपयोग को लगाये तो रागादिककी वृद्धि होती है, और
योग निरन्तर एकाग्र नहीं रहता: इसलिये ज्ञानी इस करणानयोग के अभ्यासम उपयोगको लगाता है, उससे केवलज्ञान द्वारा देखे गये पदार्थोंका जानपना इसके होता है; प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्षहीका भेद है, भासित होनेमें विरुद्धता नहीं है।
इस प्रकार यह करणानुयोगका प्रयोजन जानना।
'करण' अर्थात् गणित कार्यके कारणरूप सूत्र, उनका जिसमें 'अनुयोग'- अधिकार हो वह करणानुयोग है। इसमें गणित वर्णन की मुख्यता है – ऐसा जानना।
चरणानुयोगका प्रयोजन
अब चरणानुयोगका प्रयोजन कहते हैं। चरणानुयोगमें नानाप्रकार धर्मके साधन निरूपित करके जीवों को धर्ममें लगाते हैं। जो जीव हित-अहित को नहीं जानते, हिंसादिक पाप कार्योंमें तत्पर हो रहते हैं; उन्हें जिसप्रकार पापकार्योंको छोड़कर धर्मकार्यों में लगें, उस प्रकार उपदेश दिया है; उसे जानकर जो धर्म आचरण करनेको सन्मुख हुए, वे जीव गृहस्थधर्म व मुनिधर्म का विधान सुनकर आपसे जैसा सधे वैसे धर्म-साधनमें लगते हैं।
ऐसे साधन से कषाय मन्द होती है और उसके फलमें इतना तो होता है कि कुगतिमें दुःख नहीं पाते, किन्तु सुगति में सुख प्राप्त करते हैं; तथा ऐसे साधन से जिनमतका निमित्त बना रहता है, वहाँ तत्त्वज्ञानकी प्राप्ति होना हो तो होजाती है।
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