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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates आठवाँ अधिकार] [२६९ पापका पोषण होता है। यहाँ महन्तपुरुष राजादिककी कथाएँ तो हैं, परन्तु प्रयोजन जहाँतहाँ पापको छुड़ा कर धर्ममें लगानेका प्रगट करते हैं; इसलिये वे जीव कथाओंके लालचसे तो उन्हें पढ़ते-सुनते हैं और फिर पापको बुरा, धर्मको भला जानकर धर्ममें रुचिवंत होते इसप्रकार तुच्छबुद्धिओंको समझाने के लिये यह अनुयोग है। 'प्रथम' अर्थात् 'अव्युत्पन्न मिथ्यादृष्टि', उनके अर्थ जो अनुयोग सो प्रथमानुयोग है। ऐसा अर्थ गोम्मटसार की टीकामें ' किया है। तथा जिन जीवोंके तत्त्वज्ञान हुआ हो, पश्चात् इस प्रथमानुयोग को पढ़ें-सुनें तो उन्हें यह उसके उदाहरणरूप भासित होता है। जैसे – जीव अनादिनिधन है, शरीरादिक संयोगी पदार्थ हैं, ऐसा यह जानता था। तथा पुराणोंमें जीवोंके भवान्तर निरूपित किये हैं, वे उस जानने के उदाहरण हुए। तथा शुभ-अशुभ शुद्धोपयोगको जानता था, वह उसके फलको जानता था। पुराणोंमें उन उपयोगोंकी प्रवृत्ति और उनका फल जीवके हुआ सो निरूपण किया है, वही उस जानने का उदाहरण हुआ। इसीप्रकार अन्य जानना। यहाँ उदाहरण का अर्थ यह है कि जिस प्रकार जानता था, उसीप्रकार वहाँ किसी जीव के अवस्था हुई - इसलिये यह उस जानने की साक्षी हुई। तथा जैसे कोई सुभट है - वह सुभटोंकी प्रशंसा और कायरोंकी निन्दा जिसमें हो ऐसी किन्हीं पुराण-पुरुषोंकी कथा सुननेसे सुभटपनेमें अति उत्साहवान होता है; उसी प्रकार धर्मात्मा है - वह धर्मात्माओंकी प्रशंसा और पापियोंकी निन्दा जिसमें हो ऐसी किन्हीं पुराण-पुरुषोंकी कथा सुननेसे धर्ममें अति उत्साहवान होता है। इसप्रकार यह प्रथमानुयोगका प्रयोजन जानना। करणानुयोगका प्रयोजन तथा करणानुयोगमें जीवोंके व कर्मों के विशेष तथा त्रिलोकादिककी रचना निरूपित करके जीवोंको धर्ममें लगाया है। जो जीव धर्ममें उपयोग लगाना चाहते हैं वे जीवोंके गुणस्थान-मार्गणा आदि विशेष तथा कर्मों के कारण-अवस्था-फल किस-किसके कैसे-कैसे पाये जाते हैं इत्यादि विशेष तथा त्रिलोकमें नरक स्वर्गादिके ठिकाने पहिचान कर पापसे विमुख होकर धर्ममें लगते हैं तथा ऐसे विचारमें उपयोग रम जाये तब पाप-प्रवृत्ति छूटकर स्वयमेव तत्काल धर्म उत्पन्न होता है; उस अभ्याससे तत्त्वज्ञानकी भी प्राप्ति शीघ्र होती है। प्रथमं मिथ्यादृष्टिमवतिकमव्युत्पन्नं वा प्रतिपाद्यमाश्रित्य प्रवृत्तोऽनुयोगोऽधिकारः प्रथमानुयोग । [ जी ० प्र० टी० गा ० ३६१-६२] Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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