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आठवाँ अधिकार उपदेशका स्वरूप
अब मिथ्यादृष्टि जीवोंको मोक्षमार्गका उपदेश देकर उनका उपकार करना यही उत्तम उपकार है। तीर्थंकर, गणधराधिक भी ऐसा ही उपकार करते हैं; इसलिये इस शास्त्रमें भी उन्हींके उपदेशानुसार उपदेश देते हैं।
वहाँ उपदेशका स्वरूप जाननेके अर्थ कुछ व्याख्यान करते हैं; क्योंकि उपदेशको यथावत् न पहचाने तो अन्यथा मानकर विपरीत प्रर्वतन करे। इसलिये उपदेशका स्वरूप कहते हैं।
जिनमत में उपदेश चार अनुयोगोंके द्वारा दिया है। प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग, द्रव्यानुयोग - यह चार अनुयोग हैं।
वहाँ तीर्थंकर-चक्रवर्ती आदि महान पुरुषोंके चरित्रका जिसमें निरूपण किया हो वह प्रथमानुयोग है। तथा गुणस्थानमार्गणादिरूप जीवका व कर्मोका व त्रिलोकादिकका जिसमें निरूपण हो वह करणानुयोग' है। तथा गृहस्थ-मुनिके धर्म आचरण करनेका जिसमें निरूपण हो वह चरणानुयोग' है। तथा षद्रव्य, सप्ततत्त्वादिकका व स्व-पर-भेद विज्ञानादिकका जिसमें निरूपण हो वह द्रव्यानुयोग है।
अनुयोगों का प्रयोजन
अब इनका प्रयोजन कहते हैं :
प्रथमानुयोगका प्रयोजन
प्रथमानुयोगमें तो संसार की विचित्रता, पुण्य-पापका फल, महन्तपुरुषोंकी प्रवृत्ति इत्यादि निरूपणसे जीवों को धर्ममें लगाया है। जो जीव तुच्छबुद्धि हों वे भी उससे धर्म सन्मुख होते हैं; क्योंकि वे जीव सूक्ष्म निरूपणको नहीं पहिचानते, लौकिक कथाओंको जानते हैं, वहाँ उनका उपयोग लगता है। तथा प्रथमानुयोगमें लौकिक प्रवृत्तिरूप ही निरूपण होनेसे उसे वे भली-भाँति समझ जाते हैं। तथा लोकमें तो राजादिककी कथाओंमें
'रत्नकरण्ड २-२; रत्नकरण्ड २-३; रत्नकरण्ड २-४; रत्नकरण्ड २-५
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