SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 311
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates सातवाँ अधिकार] [२६७ औरोंके ही ऐसे दोष देख-देखकर कषायी नहीं होना; क्योंकि अपना भला-बुरा तो अपने परिणामोंसे है। औरोंको तो रुचिवान देखे तो कुछ उपदेश देकर उनका भी भला करें। इसलिये अपने परिणाम सुधारनेका उपाय करना योग्य है; सर्व प्रकारके मिथ्यात्वभाव छोड़कर सम्यग्दृष्टि होना योग्य है; क्योंकि संसारका मूल मिथ्यात्व है, मिथ्यात्वके समान अन्य पाप नहीं है। एक मिथ्यात्व और उसके साथ अनन्तानुबन्धीका अभाव होनेपर इकतालीस प्रकृतियोंका तो बन्ध ही मिट जाता है, स्थिति अंतःकोड़ाकोड़ी सागरकी रह जाती है, अनुभाग थोड़ा ही रह जाता है, शीघ्र ही मोक्षपदको प्राप्त करता है। तथा मिथ्यात्वका सदभाव रहने पर अन्य अनेक उपाय करने पर भी मोक्षमार्ग नहीं होता। इसलिये जिस-तिस उपायसे सर्वप्रकार मिथ्यात्वका नाश करना योग्य है। इति श्री मोक्षमार्गप्रकाशक नामक शास्त्रमें जैनमतवाले मिथ्यादृष्टियोंका निरूपण जिसमें हुआ ऐसा [ सातवाँ ] अधिकार सम्पूर्ण हुआ ।।७।। १४१ प्रकृतियों के नाम मिथ्यात्व सम्बन्धी १६ : मिथ्यात्व, हंडकसंस्थान, नपुंसकवेद, नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी, नरकायु, असंप्राप्तासृपातिकासंहनन, जाति ४ ( एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय) , स्थावर, आताप, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण। अनन्तानुबन्धी सम्बन्धी २५ : अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ; स्त्यानगृद्धि, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय, अप्रशस्तविहायोगति, स्त्रीवेद, नीचगोत्र, तिर्यग्गति, तिर्यग्गत्यानपूर्वी, तिर्यगाय, उद्योत, संस्थान ४ (न्यग्रोध, स्वाति, कुब्जक, वामन), संहनन ४ ( वज्रनाराच, नाराच, अर्धनाराच, और कीलित)। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy