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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates २६६] [मोक्षमार्गप्रकाशक पश्चात् अन्तर्मुहूर्तमें केवलज्ञान प्राप्त करता है। ऐसा जानकर अपने परिणाम बिगड़नेका भय रखना और उनके सुधारनेका उपाय करना। तथा उस सादि मिथ्यादृष्टिके थोड़े काल मिथ्यात्वका उदय रहे तो बाह्य जैनीपना नष्ट नहीं होता, व तत्त्वोंका अश्रद्धान व्यक्त नहीं होता, व विचार किये बिना ही व थोड़े विचारहीसे पुनः सम्यक्त्वकी प्राप्ति हो जाती है। तथा बहुत काल तक मिथ्यात्वका उदय रहे तो जैसी अनादि मिथ्यादृष्टिकी दशा होती है वैसी इसकी भी दशा होती है। गृहीत मिथ्यात्वको भी वह ग्रहण करता है और निगोदादिमें भी रुलता है। इसका कोई प्रमाण नहीं है। तथा कोई जीव सम्यक्त्वसे भ्रष्ट होकर सासादन होता है और वहाँ जघन्य एक समय उत्कृष्ट छह आवली प्रमाण काल रहता है। उसके परिणामकी दशा वचन द्वारा कहनेमें नहीं आती। सूक्ष्मकाल मात्र किसी जातिके केवलज्ञानगम्य परिणाम होते हैं। वहाँ अनन्तानुबन्धीका तो उदय होता है, मिथ्यात्वका उदय नहीं होता। सो आगम प्रमाणसे उसका स्वरूप जानना। तथा कोई जीव सम्यक्त्वसे भ्रष्ट होकर मिश्रगुणस्थानको प्राप्त होता है। वहाँ मिश्रमोहनीयका उदय होता है, इसका काल मध्यम अन्तर्मुहर्तमात्र है। सो इसका भी काल थोड़ा है, इसलिये इसके भी परिणाम केवलज्ञानगम्य हैं। यहाँ इतना भासित होता है कि जैसे किसीको शिक्षा दी; उसे वह कुछ सत्य और कुछ असत्य एक ही कालमें माने; उसीप्रकार तत्त्वोंका श्रद्धान-अश्रद्धान एक ही कालमें हो मिश्रदशा है। कितने ही कहते हैं - 'हमें तो जिनदेव तथा अन्य देव सर्व ही वन्दन करने योग्य हैं' - इत्यादि मिश्रश्रद्धानको मिश्रगुणस्थान कहते हैं, सो ऐसा नहीं है; यह तो प्रत्यक्ष मिथ्यात्वदशा है। व्यवहाररूप देवादिकका श्रद्धान होनेपर भी मिथ्यात्व रहता है, तब इसके तो देव-कुदेवका कुछ निर्णय ही नहीं है; इसलिये इसके तो यह विनय मिथ्यात्व प्रगट है - ऐसा जानना। इसप्रकार सम्यक्त्वके सन्मुख मिथ्यादृष्टियोंका कथन किया, प्रसंग पाकर अन्य भी कथन किया है। इसप्रकार जैनमतवाले मिथ्यादृष्टियोंके स्वरूपका निरूपण किया। यहाँ नानाप्रकारके मिथ्यादृष्टियोंका कथन किया है। उसका प्रयोजन यह जानना कि उनप्रकारोंको पहिचानकर अपनेमें ऐसा दोष हो तो उसे दूर करके सम्यश्रद्धानी होना, Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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