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सातवाँ अधिकार ]
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समाधान :-ज्ञानीजनोंको उपवासादिककी इच्छा नहीं है, एक शुद्धोपयोगकी इच्छा है; उपवासादि करनेसे शुद्धोपयोग बढ़ता है, इसलिये उपवासादि करते हैं। तथा यदि उपवासादिसे शरीर या परिणामोंकी शिथिलता के कारण शुद्धोपयोगको शिथिल होता जाने तो वहाँ आहारादिक ग्रहण करते हैं। यदि उपवासादिकहीसे सिद्धि हो तो अजितनाथ आदि तेईस तीर्थंकर दीक्षा लेकर दो उपवास ही क्यों धारण करते ? उनकी तो शक्तिभी बहुत थी। परन्तु जैसे परिणाम हुए वैसे बाह्य साधन द्वारा एक वीतराग शुद्धोपयोगका अभ्यास किया।
प्रश्न :- यदि ऐसा है तो अनशनादिकको तप संज्ञा कैसे हुई ?
समाधान :- उन्हें बाह्य तप कहा है। सो बाह्यका अर्थ यह है कि 'बाहरसे औरोंको दिखायी दे कि यह तपस्वी है'; परन्तु आप तो फल जैसे अंतरंग परिणाम होंगे वैसा ही पायेगा, क्योंकि परिणामशुन्य शरीरकी क्रिया फलदाता नहीं है।
यहाँ फिर प्रश्न है कि शास्त्रमें तो अकाम-निर्जरा कही है। वहाँ बिना इच्छाके भूखप्यास आदि सहनेसे निर्जरा होती है; तो फिर उपवासादि द्वारा कष्ट सहनेसे कैसे निर्जरा न हो?
समाधान :- अकाम-निर्जरामें भी बाह्य निमित्त तो बिना इच्छाके भूख-प्यासका सहन करना हुआ है, और वहाँ मन्दकषायरूप भाव हो; तो पापकी निर्जरा होती है, देवादि पुण्यका बन्ध होता है। परन्तु यदि तीव्रकषाय होनेपर भी कष्ट सहनेसे पुण्यबन्ध होता हो तो सर्व तिर्यंचादिक देव ही हों, सो बनता नहीं है। उसी प्रकार इच्छापूर्वक उपवासादि करनेसे वहाँ भूख-प्यासादि कष्ट सहते हैं, सो यह बाह्य निमित्त है; परन्तु वहाँ जैसा परिणाम हो वैसा फल पाता है। जैसे अन्नको प्राण कहा उसी प्रकार। तथा इस प्रकार बाह्य साधन होने से अंतरंग तपकी वृद्धि होती है इसलिये उपचारसे इनको तप कहा है; परन्तु यदि बाह्य तप तो करे और अंतरंग तप न हो तो उपचारसे भी उसे तप संज्ञा नहीं है। कहा भी है :
कषायविषयाहारो त्यागो यत्र विधीयते । उपवासः स विज्ञेयः शेषं लंघनकं विदुः ।।
जहाँ कषाय-विषय और आहारका त्याग किया जाता है उसे उपवास जानना। शेषको श्रीगुरु लंघन कहते हैं।
यहाँ कहेगा - यदि ऐसा है तो हम उपवासादि नहीं करेंगे ?
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