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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates २३२] [ मोक्षमार्गप्रकाशक उससे कहते है – उपदेश तो ऊँचा चढ़नेको दिया जाता है; तू उल्टा नीचे गिरेगा तो हम क्या करेंगे? यदि तू मानादिकसे उपवासादि करता है तो कर या मत कर; कुछ सिद्धि नहीं है और यदि धर्मबुद्धिसे आहारादिकका अनुराग छोड़ता है तो जितना राग छूटा उतना ही छूटा; परन्तु इसीको तप जानकर इससे निर्जरा मानकर संतुष्ट मत हो। __ तथा अंतरंग तपोंमें प्रायश्चित्त , विनय, वैयावृत्त , स्वाध्याय, त्याग और ध्यानरूप जो क्रियाएँ - उनमें बाह्य प्रवर्तन उसे तो बाह्यतपवत ही जानना। जैसे अनशनादि बाह्य क्रिया हैं उसी प्रकार यह भी बाह्य क्रिया हैं; इसलिये प्रायश्चित्तादि बाह्यसाधन अंतरंग तप नहीं हैं। ऐसा बाह्य प्रवर्तन होनेपर जो अंतरंग परिणामोंकी शुद्धता हो उसका नाम अंतरंग तप जानना। वहाँ भी इतना विशेष है कि बहुत शुद्धता होनेपर शुद्धोपयोगरूप परिणति होती है वहाँ तो निर्जरा ही है; बन्ध नहीं होता। और अल्प शुद्धता होनेपर शुभोपयोगका भी अंश रहता है; इसलिये जितनी शुद्धता हुई उससे तो निर्जरा है और जितना शुभभाव है उससे बन्ध है। ऐसा मिश्रभाव युगपत् होता है, वहाँ बन्ध और निर्जरा दोनों होते हैं। यहाँ कोई कहे कि शुभभावोंसे पापकी निर्जरा होती है, पुण्यका बन्ध होता है; परन्तु शुद्धभावोंसे दोनोंकी निर्जरा होती है - ऐसा क्यों नहीं कहते ? उत्तर :- मोक्षमार्गमें स्थितिका तो घटना सभी प्रकृतियोंका होता है; वहाँ पुण्यपापका विशेष है ही नहीं। और अनुभागका घटना पुण्य-प्रकृतियोंमें शुद्धोपयोगसे भी नहीं होता। ऊपर-ऊपर पुण्यप्रकृतियोंके अनुभागका तीव्र बन्ध-उदय होता है और पापप्रकृतियोंके परमाणु पलटकर शुभप्रकृतिरूप होते हैं - ऐसा संक्रमण शुभ तथा शुद्ध दोनों भाव होनेपर होता है; इसलिये पूर्वोक्त नियम संभव नहीं है, विशुद्धताहीके अनुसार नियम संभव है। देखो, चतुर्थगणस्थानवाला शास्त्राभ्यास. आत्मचिंतवन आदि कार्य करे - वहाँ भी निर्जरा नहीं. बन्ध भी बहत होता है। और पंचमगणस्थानवाला विषयसेवनादि का वहाँ भी उसके गुणश्रेणी निर्जरा होती रहती है, बन्ध भी थोड़ा होता है। तथा पंचमगुणस्थानवाला उपवासादि या प्रायश्चित्तादि तप करे उस कालमें भी उसके निर्जरा थोड़ी होता है। और छठवें गुणस्थानवाला आहार-विहारादि क्रिया करे उस कालमें भी उसके निर्जरा बहुत होती है, तथा बन्ध उससे थोड़ा होता है। इसलिये बाह्य प्रवृत्तिके अनुसार निर्जरा नहीं है, अंतरंग कषायशक्ति घटनेसे विशुद्धता होनेपर निर्जरा होती है। सो इसके प्रगट स्वरूपका आगे निरूपण करेंगे वहाँसे जानना। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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