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[मोक्षमार्गप्रकाशक
प्रश्न :- यदि ऐसा है तो चारित्रके तेरह भेदोंमें महाव्रतादि कैसे कहे हैं ?
समाधान :- वह व्यवहार चारित्र कहा है, और व्यवहार नाम उपचारका है। सो महाव्रतादि होनेपर ही वीतरागचारित्र होता है -
र हा वीतरागचारित्र होता है - ऐसा सम्बन्ध जानकर महाव्रतादिमें चारित्रका उपचार किया है; निश्चयसे निःकषायभाव है, वही सच्चा चारित्र है।
इस प्रकार संवरके कारणोंको अन्यथा जानते हुए संवरका सच्चा श्रद्धानी नहीं होता।
निर्जरातत्त्वका अन्यथारूप
तथा यह अनशनादि तपसे निर्जरा मानता है; परन्तु केवल बाह्य तप ही करनेसे तो निर्जरा होती नहीं है। बाह्य तप तो शुद्धोपयोग बढ़ाने के अर्थ करते हैं। शुद्धोपयोग निर्जराका कारण है, इसलिये उपचारसे तपको भी निर्जराका कारण कहा है। यदि बाह्य दुःख सहना ही निर्जराका कारण हो तो तिर्यंचादि भी भूख-तृषादि सहते हैं।
तब वह कहता है - वे तो पराधीनतासे सहते हैं; स्वाधीनतासे धर्मबुद्धिपूर्वक उपवासादिरूप तप करे उसके निर्जरा होती है।
समाधान :- धर्मबुद्धिसे बाह्य उपवासादि तो किये; और वहाँ उपयोग अशुभ, शुभ, शुद्धरूप जैसा परिणमित हो वैसा परिणमो। यदि बहुत उपवासादि करनेसे बहुत निर्जरा हो, थोड़े करनेसे थोड़ी निर्जरा हो - ऐसा नियम ठहरे; तब तो उपवासादिक ही मुख्य निर्जराका कारण ठहरेगा; सो तो बनता नहीं। परिणाम दुष्ट होनेपर उपवासादिकसे निर्जरा होना कैसे संभव है ?
यदि ऐसा कहें कि जैसा अशुभ , शुभ, शुद्धरूप उपयोग परिणमित हो उसके अनुसार बन्ध-निर्जरा है; तो उपवासादि तप मुख्य निर्जराका कारण कैसे रहा? अशुभशुभपरिणाम बन्धके कारण ठहरे, शुद्धपरिणाम निर्जराके कारण ठहरे।
प्रश्न :- तत्त्वार्थसूत्रमें “ तपसा निर्जरा च " (९-३) ऐसा कैसे कहा है ?
समाधान :- शास्त्रमें “ इच्छानिरोधस्तपः” १ ऐसा कहा है; इच्छाको रोकना उसका नाम तप है। सो शुभ-अशुभ इच्छा मिटनेपर उपयोग शुद्ध हो वहाँ निर्जरा है। इसलिये तपसे निर्जरा कही है।
यहाँ कहता है - आहारादिरूप अशुभकी तो इच्छा दूर होनेपर ही तप होता है; परन्तु उपवासादिक व प्रायश्चित्तादिक शुभ कार्य हैं इनकी इच्छा तो रहती है ?
१ धवला पुस्तक १३, खण्ड ५, भाग ४, सूत्र २६, पृष्ठ ५४
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