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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates २२६] [ मोक्षमार्गप्रकाशक इत्यादि भाव भासित हुए बिना उसे जीव-अजीवका सच्चा श्रद्धानी नहीं कहते; क्योंकि जीव-अजीवको जाननेका तो यह ही प्रयोजन था, वह हुआ नहीं। आस्रवतत्त्वका अन्यथारूप तथा आस्रवतत्त्वमें जो हिंसादिरूप पापास्रव हैं उन्हें हेय जानता है; अहिंसादिरूप पुण्यास्रव हैं उन्हें उपादेय मानता है। परन्तु यह तो दोनो ही कर्मबन्धके कारण हैं, इनमें उपादेयपना मानना वही मिथ्यादृष्टि है वही समयसारके बन्धादिकारमें कहा है : सर्व जीवोंके जीवन-मरण, सुख-दुःख अपने कर्मके निमित्तसे होते हैं। जहाँ अन्य जीव अन्य जीवके इन कार्योंका कर्ता हो, वही मिथ्याध्यवसाय बन्धका कारण है। वहाँ अन्य जीवको जिलानेका अथवा सुखी करनेका अध्यवसाय हो वह तो पुण्यबन्धका कारण है, और मारने अथवा दुखी करनेका अध्यवसाय हो वह पापबन्धका कारण है। इस प्रकार अहिंसावत् सत्यादिक तो पुण्यबन्धके कारण हैं और हिंसावत् असत्यादिक पापबन्धके कारण हैं। ये सर्व मिथ्याध्यवसाय हैं, वे त्याज्य हैं। इसलिये हिंसादिवत् अहिंसादिकको भी बन्धका कारण जानकर हेय ही मानना। हिंसामें मारनेकी बुद्धि हो, परन्तु उसकी आयु पूर्ण हुए बिना मरता नहीं है, यह अपनी द्वेषपरिणतिसे आप ही पाप बाँधता है। अहिंसामें रक्षा करनेकी बुद्धि हो, परन्तु उसकी आयु अवशेष हुए बिना वह जीता नहीं है, यह अपनी प्रशस्त रागपरिणतिसे आप ही पुण्य बाँधता है। इसप्रकार यह दोनों हेय है; जहाँ वीतराग होकर दृष्टाज्ञातारूप प्रवर्ते वहाँ निर्बन्ध है सो उपादेय है। सो ऐसी दशा न हो तब तक प्रशस्तरागरूप प्रवर्तन करो; परन्तु श्रद्धान तो ऐसा रखो कि यह भी बन्धका कारण है, हेय है; श्रद्धानमें इसे मोक्षमार्ग जानेतो मिथ्यादृष्टि ही होता है। तथा मिथ्यात्व, अविरति, कषाय, योग - ये आस्रवके भेद हैं; उन्हें बाह्यरूप तो मानता है, परन्तु अंतरंग इन भावोंकी जातिको नहीं पहिचानता। वहाँ अन्य देवादिके सेवनरूप गृहितमिथ्यात्वको मिथ्यात्व जानता है, परन्तु अनादि अगृहितमिथ्यात्व है उसे नहीं पहिचानता। १ समयसार गाथा २५४ से २५६ तथा समयसारके निम्नलिखति कलश - सर्वं सदैव नियतं भवति स्वकीयकर्मोदयान्मरणजीवितदुःखसौख्यम् । अज्ञानमेतदिह यत्तु पर: परस्य कुर्यात्पुमान्मरणजीवितदुःखसौख्यम् ।। १६८ ।। अज्ञानमेतदधिगम्य परात्परस्य पश्यन्ति ये मरणजीवितदुःखसौख्यम् । काण्यहंकृतिरसेन चिकीर्षवस्ते मिथ्यादृशो नियतमात्महनो भवन्ति ।। १६९ ।। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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