SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 271
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates सातवाँ अधिकार ] [ ૨૨૭ तथा बाह्य त्रस-स्थावरकी हिंसा तथा इन्द्रिय-मनके विषयों में प्रवृत्ति उसको अविरति जानता है; हिंसामें प्रमाद परिणति मूल है और विषयसेवनमें अभिलाषा मूल है उसका अवलोकन नहीं करता । तथा बाह्य क्रोधादिक करना उसको कषाय जानता है, अभिप्रायमें राग-द्वेष बस रहे हैं उनको नहीं पहिचानता। तथा बाह्य चेष्टा हो उसे योग जानता है, शक्तिभूत योगोंको नहीं जानता। इस प्रकार आस्रवोंका स्वरूप अन्यथा जानता है। तथा राग-द्वेष-मोहरूप जो आस्रवभाव हैं, उनका तो नाश करनेकी चिन्ता नहीं और बाह्यक्रिया अथवा बाह्यनिमित्त मिटानेका उपाय रखता है; सो उनके मिटानेसे आस्रव नहीं मिटता। द्रव्यलिंगी मुनि अन्य देवादिककी सेवा नहीं करता, हिंसा या विषयोंमें नहीं प्रवर्तता, क्रोधादि नहीं करता, मन-वचन-कायको रोकता है; तथापि उसके मिथ्यात्वादि चारों आस्रव पाये जाते हैं। तथा कपटसे भी वे कार्य नहीं करता है, कपटसे करे तो ग्रैवेयकपर्यन्त कैसे पहुँचे ? इसलिये जो अन्तरंग अभिप्रायमें मिथ्यात्वादिरूप रागादिभाव हैं वे ही आस्रव हैं। उन्हें नहीं पहिचानता इसलिये इसके आस्रवतत्त्वका भी सत्य श्रद्धान नहीं है। बन्धतत्त्वका अन्यथारूप तथा बन्धतत्त्वमें जो अशुभभावोंसे नरकादिरूप पापका बन्ध हो उसे तो बुरा जानता है और शुभभावोंसे देवादिरूप पुण्यका बन्ध हो उसे भला जानता है। परन्तु सभी जीवोंके दुःखसामग्रीमें द्वेष और सुख-सामग्रीमें राग पाया जाता है, सो इसके भी राग-द्वेष करनेका श्रद्धान हुआ। जैसा इस पर्याय सम्बन्धी सुख-दुःखसामग्रीमें राग-द्वेष करना है वैसा ही आगामी पर्याय सम्बन्धी सुख-दुःखसामग्रीमें राग-द्वेष करना है। __ तथा शुभ-अशुभ भावोंसे पुण्य-पापका विशेष तो अघातिकर्मों में होता है, परन्तु अघातिकर्म आत्मगुणके घातक नहीं हैं। तथा शुभ-अशुभभावोंमें घातिकर्मोंका तो निरन्तर बन्ध होता है, वे सर्व पापरूप ही हैं, और वही आत्मगुण के घातक हैं। इसलिये अशुद्धभावोंसे कर्म बन्ध होता है, उसमें भला-बुरा जानना वही मिथ्या श्रद्धान है। सो ऐसे श्रद्धानसे बन्धका भी उसे सत्य श्रद्धान नहीं है। संवरतत्त्वका अन्यथारूप तथा संवरतत्त्वमें अहिंसादिरूप शुभासवभावोंको संवर जानता है। परन्तु एक ही कारणसे पुण्यबन्ध भी माने और संवर भी माने वह नहीं हो सकता। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy