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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates सातवाँ अधिकार] [२२३ वहाँ वह पूछता है – ऐसा है तो ज्ञानीसे अज्ञानीके भक्तिकी अधिकता होती होगी? उत्तर :- यथार्थताकी अपेक्षा तो ज्ञानीके सच्ची भक्ति है, अज्ञानीके नहीं है। और रागभावकी अपेक्षा अज्ञानीके श्रद्धानमें भी उसे मुक्तिका कारण जाननेसे अति अनुराग है, ज्ञानीके श्रद्धानमें शुभबन्धका कारण जाननेसे वैसा अनुराग नहीं है। बाह्यमें कदाचित् ज्ञानीको अनुराग बहुत होता है, कभी अज्ञानीको होता है - ऐसा जानना। इस प्रकार देवभक्तिका स्वरूप बतलाया। गुरुभक्तिका अन्यथारूप अब, गुरुभक्ति उसके कैसी होती है सो कहते हैं : कितने ही जीव आज्ञानुसारी हैं। वे तो - यह जैनके साधु हैं, हमारे गुरु हैं, इसलिये इनकी भक्ति करनी - ऐसा विचारकर उनकी भक्ति करते हैं। और कितने ही जीव परीक्षा भी करते हैं। वहाँ यह मुनि दया पालते हैं, शील पालते हैं, धनादि नहीं रखते, उपवासादि तप करते हैं, क्षुधादि परीषह सहते हैं, किसीसे क्रोधादि नहीं करते हैं, उपदेश देकर औरोंको धर्ममें लगाते हैं - इत्यादि गुणोंका विचार कर उनमें भक्तिभाव करते हैं। परन्तु ऐसे गुण तो परमहंसादिक अन्यमतियोंमें तथा जैनी मिथ्यादृष्टियोंमें भी पाये जाते हैं, इसलिये इनमें अतिव्याप्तिपना है। इनके द्वारा सच्ची परीक्षा नहीं होती। तथा जिन गुणोंका विचार करते हैं उनमें कितनेही जीवाश्रित हैं, कितने ही पुद्गलाश्रित हैं; उनके विशेष न जानते हुए असमानजातीय मुनिपर्याय में एकत्वबुद्धिसे मिथ्यादृष्टि ही रहते हैं। तथा सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रकी एकतारूप मोक्षमार्ग वह ही मुनियोंका सच्चा लक्षण है, उसे नहीं पहिचानते। क्योंकि यह पहिचान हो जाये तो मिथ्यादृष्टि रहते नहीं। इसप्रकार यदि मुनियोंका सच्चा स्वरूप ही नहीं जानेंगे तो सच्ची भक्ति कैसे होगी ? पुण्यबन्धके कारणभूत शुभक्रियारूप गुणोंको पहिचानकर उनकी सेवासे अपना भला होना जानकर उनमें अनुरागी होकर भक्ति करते हैं। इस प्रकार गुरुभक्तिका स्वरूप कहा। शास्त्रभक्तिका अन्यथारूप अब, शास्त्रभक्तिका स्वरूप कहते हैं : कितने ही जीव तो यह केवली भगवानकी वाणी है। इसलिये केवलीके पूज्यपनेके कारण यह भी पूज्य है - ऐसा जानकर भक्ति करते हैं। तथा कितने ही इसप्रकार परीक्षा करते हैं कि इन शास्त्रोंमें विरागता, दया, क्षमा, शील, संतोषादिकका निरूपण है इसलिये यह उत्कृष्ट हैं - ऐसा जानकर भक्ति करते हैं। सो ऐसा कथन तो अन्य शास्त्र वेदान्तादिकमें भी पाया जाता है। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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