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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates २२२] [मोक्षमार्गप्रकाशक तथा उन अरहन्तोंको स्वर्ग-मोक्षदाता, दीनदयाल , अधमउधारक, पतितपावन मानता है; सो जैसे अन्यमती कत्तृत्वबुद्धिसे ईश्वरको मानता है; उसी प्रकार यह अरहन्तको मानता है। ऐसा नहीं जानता कि फल तो अपने परिणामोंका लगता है, अरहन्त उनको निमित्तमात्र है, इसलिये उपचार द्वारा वे विशेषण सम्भव होते हैं। अपने परिणाम शुद्ध हुए बिना अरहन्त ही स्वर्ग-मोक्षादिके दाता नहीं है। तथा अरहन्तादिकके नामादिकसे श्वानादिकने स्वर्ग प्राप्त किया, वहाँ नामादिकका ही अतिशय मानते हैं; परन्तु बिना परिणामके नाम लेनेवालोंको भी स्वर्गकी प्राप्ति नहीं होती, तब सुननेवालोंको कैसे होगी ? श्वानादिकको नाम सुननेके निमित्तसे कोई मन्दकषायरूप भाव हुए हैं उनका फल स्वर्ग हुआ है; उपचारसे नामहीकी मुख्यता की है। तथा अरहन्तादिकके नाम-पूजनादिकसे अनिष्ट सामग्रीका नाश तथा इष्ट सामग्रीकी प्राप्ति मानकर रोगादि मिटानेके अर्थ व धनादिककी प्राप्तिके अर्थ नाम लेता है व पूजनादि करता है। सो इष्ट-अनिष्टका कारण तो पूर्वकर्मका उदय है, अरहन्त तो कर्त्ता है नहीं। अरहन्तादिककी भक्तिरूप शुभोपयोग परिणामोंसे पूर्वपापके संक्रमणादि हो जाते हैं, इसलिये उपचारसे अनिष्टके नाशका व इष्टकी प्राप्तिका कारण अरहन्तादिककी भक्ति कही जाती है। परन्त जो जीव प्रथमसे ही सांसारिक प्रयोजनसहित भक्ति करता है उसके तो पापही का अभिप्राय हुआ। कांक्षा, विचिकित्सारूप भाव हुए – उनसे पूर्वपापके संक्रमणादि कैसे होंगे ? इसलिये उसका कार्य सिद्ध नहीं हुआ। तथा कितने ही जीव भक्तिको मुक्तिका कारण जानकर वहाँ अति अनुरागी होकर प्रवर्तते हैं। वह तो अन्यमती जैसे भक्तिसे मुक्ति मानते हैं वैसा ही इनके भी श्रद्धान हुआ। परन्तु भक्ति तो रागरूप है और रागसे बन्ध है, इसलिये मोक्षका कारण नहीं है। जब रागका उदय आता है तब भक्ति न करे तो पापानुराग हो, इसलिये अशुभराग छोड़नेके लिये ज्ञानी भक्ति में प्रवर्तते हैं और मोक्षमार्गको बाह्य निमित्तमात्र भी जानते हैं; परन्तु यहाँ ही उपादेयपना मानकर संतुष्ट नहीं होते, शुद्धोपयोगके उद्यमी रहते हैं। वहीं पंचास्तिकाय व्याख्यामें कहा है :- इयं भक्ति: केवलभक्तिप्रधानस्याज्ञानिनो भवति। तीव्ररागज्वरविनोदार्थमस्थानरागनिषेदार्थं क्वचित् ज्ञानिनोपि भवति।। अर्थ :- यह भक्ति केवल भक्ति ही है प्रधान जिसके ऐसे अज्ञानी जीवके होती है। तथा तीव्ररागज्वर मिटानेके अर्थ या कुस्थानके रागका निषेध करनेके अर्थ कदाचित् ज्ञानीके भी होती है। १ अयं हि स्थूललक्षणतया केवलभक्तिप्रधान्यस्याज्ञानिनो भवति । उपरितनभूमिकायामलब्धास्पदस्यास्थानराग निषेधार्थ तीव्ररागज्वरविनोदार्थ वा कदाचिज्ज्ञानिनोऽपि भवतीति। (गाथा १३६ की टीका) Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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