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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates छठवाँ अधिकार ] [१७३ करें, इसलिये यह मिथ्याभाव हैं। तथा ज्योतिषके विचारसे बुरे ग्रहादिक आनेपर उनकी पूजनादि करते हैं, इसके अर्थ दानादिक देते हैं; सो जिस प्रकार हिरनादिक स्वयमेव गमनादिक करते हैं, और पुरूषके दायें-बायें आने पर सुख-दुःख होनेके आगामी ज्ञानको कारण होते हैं, कुछ सुख-दुःख देनेको समर्थ नहीं हैं; उसी प्रकार ग्रहादिक स्वयमेव गमनादिक करते हैं, और प्राणीके यथासम्भव योगको प्राप्त होनेपर सुख-दुःख होनेके आगामी ज्ञानको कारण होते हैं, कुछ सुख-दुःख देनेको समर्थ नहीं हैं। कोई तो उनका पूजनादि करते हैं उनके भी इष्ट नहीं होता; कोई नहीं करता उसके भी इष्ट होता है; इसलिये उनका पूजनादि करना मिथ्याभाव है। यहाँ कोई कहे – देना तो पुण्य है सो भला ही है ? उत्तर :- धर्मके अर्थ देना पुण्य है। यह तो दुःखके भयसे व सुखके लोभसे देते हैं, इसलिये पाप ही है। इत्यादि अनेक प्रकारसे ज्योतिषी देवोंको पूजते हैं सो मिथ्या है। तथा देवी-दहाड़ी आदि हैं; वे कितनी ही तो व्यन्तरी व ज्योतिषिनी हैं, उनका अन्यथा स्वरूप मानकर पूजनादि करते हैं। कितनी ही कल्पित हैं; सो उनकी कल्पना करके पूजनादि करते हैं। इस प्रकार व्यन्तरादिकके पूजनेका निषेध किया। क्षेत्रपाल, पद्मावती आदि पूजनेका निषेध यहाँ कोई कहे - क्षेत्रपाल, दहाड़ी, पद्मावती आदि देवी, यक्ष-यक्षिणी आदि जो जिनमतका अनुसरण करते हैं उनके पूजनादि करनेमें दोष नहीं है ? उत्तर :- जिनमतमें संयम धारण करनेसे पूज्यपना होता है; और देवोंके संयम होता ही नहीं। तथा इनको सम्यक्त्वी मानकर पूजते हैं सो भवनत्रिकमें सम्यक्त्वकी भी मुख्यता नहीं है। यदि सम्यक्त्वसे ही पूजते हैं तो सर्वार्थसिद्धिके देव , लौकान्तिक देव उन्हें ही क्यों न पूजे ? फिर कहोगे - इनके जिनभक्ति विशेष है; सो भक्तिकी विशेषता सौधर्म इन्दके भी है, वह सम्यग्दृष्टि भी है; उसे छोड़कर इन्हें किसलिये पूजें ? फिर यदि कहोगे - जिस प्रकार राजाके प्रतिहारादिक हैं, उसी प्रकार तीर्थंकरके क्षेत्रपालादिक हैं; परन्तु समवसरणादिमें इनका अधिकार नहीं है, यह तो झूठी मान्यता है। तथा जिस प्रकार प्रतिहारादिकके मिलाने पर राजासे मिलते हैं; उसी प्रकार यह तीर्थंकरसे नहीं मिलाते। वहाँ तो जिसके भक्ति हो वही तीर्थंकरके दर्शनादिक करता है, कुछ किसीके आधीन नहीं है। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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