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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates १७२] [मोक्षमार्गप्रकाशक इस प्रकार व्यन्तरादिककी शक्ति जानना। यहाँ कोई कहे - इतनी शक्ति जिनमें पायी जाये उनके मानने-पूजनेमें क्या दोष ? उत्तर :- अपने पापका उदय होनेसे सुख नहीं दे सकते, पुण्यका उदय होनेसे दुःख नहीं दे सकते; तथा उनको पूजनेसे कोई पुण्यबन्ध नहीं होता, रागादिककी वृद्धि होनेसे पापही होता है; इसलिये उनका मानना-पूजना कार्यकारी नहीं है, बुरा करनेवाला है। तथा व्यन्तरादिक मनवाते हैं, पुजवाते हैं - वह कुतूहल करते हैं; कुछ विशेष प्रयोजन नहीं रखते। जो उनको माने-पूजे, उसीसे कुतूहल करते रहते हैं; जो नहीं मानते-पूजते उनसे कुछ नहीं कहते। यदि उनको प्रयोजन ही हो, तो न मानने-पूजनेवालेको बहुत दुःखी करें; परन्तु जिनके न मानने-पूजनेका निश्चय है, उससे कुछ भी कहते दिखायी नहीं देते। तथा प्रयोजन तो क्षुधादिककी पीड़ा हो तब हो; परन्तु वह तो उनके व्यक्त होती नहीं है। यदि हो तो उनके अर्थ नैवेद्यादिक देते हैं, उसे ग्रहण क्यों नहीं करते? व औरोंको भोजनादि करानेको ही क्यों कहते हैं ? इसलिये उनके कुतूहलमात्र क्रिया है। अपनेमें उनके कुतूहलका स्थान होनेपर दुःख होगा, हीनता होगी; इसलिये उनको मानना-पूजना योग्य नहीं है। तथा कोई पूछे कि व्यन्तर ऐसा कहते हैं - गया आदिमें पिंडदान करो तो हमारी गति होगी, हम फिर नहीं आयेंगे। सो क्या है ? उत्तर :- जीवोंके पूर्वभवका संस्कार तो रहता ही है। व्यन्तरोंको भी पूर्वभवके स्मरणादिसे विशेष संस्कार है; इसलिये पूर्वभव में ऐसी ही वासना थी - गयादिकमें पिंडदानादि करनेपर गति होती है, इसलिये ऐसे कार्य करनेको कहते हैं। यदि मुसलमान आदि मरकर व्यन्तर होते हैं, वे तो ऐसा नहीं कहते, वे तो अपने संस्काररूप ही वचन कहते हैं; इसलिये सर्व व्यन्तरोंकी गति उसी प्रकार होती हो तो सभी समान प्रार्थना करें; परन्तु ऐसा नहीं है। ऐसा जानना। इस प्रकार व्यन्तरादिकका स्वरूप जानना। तथा सूर्य, चन्द्रमा, ग्रहादिक ज्योतिषी हैं; उनको पूजते हैं वह भी भ्रम है। सूर्यादिकको परमेश्वरका अंश मानकर पूजते हैं, परन्तु उसके तो एक प्रकाशकी ही अधिकता भासित होती है; सो प्रकाशवान् तो अन्य रत्नादिक भी होते है; अन्य कोई ऐसा लक्षण नहीं है जिससे उसे परमेश्वरका अंश मानें। तथा चन्द्रमादिकको धनादिककी प्राप्तिके अर्थ पूजते हैं; परन्तु उनके पूजनसे ही धन होता हो तो सर्व दरिद्री इस कार्यको Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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