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[मोक्षमार्गप्रकाशक
तथा देखो अज्ञानता ! आयुधादि सहित रौद्रस्वरूप है जिनका, उनकी गा-गाकर भक्ति करते हैं। सो जिनमतमें भी रौद्ररूप पूज्य हुआ तो यह भी अन्य मतके ही समान हुआ। तीव्र मिथ्यात्वभावसे जिनमतमें भी ऐसी विपरीत प्रवृत्तिका मानना होता है।
इस प्रकार क्षेत्रपालादिकको भी पूजना योग्य नहीं है।
तथा गाय, सर्पादि तिर्यंच हैं वे प्रत्यक्ष ही अपनेसे हीन भासित होते हैं; उनका तिरस्कारादि कर सकते हैं, उनकी निंद्यदशा प्रत्यक्ष देखी जाती है। तथा वृक्ष , अग्नि, जलादिक स्थावर हैं; वे तिर्यंचोंसे भी अत्यन्त हीन अवस्थाको प्राप्त देखे जाते हैं। तथा शस्त्र, दवात आदि अचेतन हैं; वे सर्वशक्तिसे हीन प्रत्यक्ष भासित होते हैं, उनमें पूज्यपने का उपचार भी सम्भव नहीं है। - इसलिये इनका पूजना महा मिथ्याभाव है। इनको पूजनेसे प्रत्यक्ष व अनुमान द्वारा कुछ भी फलप्राप्ति भासित नहीं होती; इसलिये इनको पूजना योग्य नहीं है।
इस प्रकार सर्व ही कुदेवोंको पूजना-मानना निषिद्ध है।
देखो तो मिथ्यात्वकी महिमा ! लोकमें तो अपनेसे नीचेको नमन करने में अपनेको निंद्य मानते हैं, और मोहित होकर रोड़ों तकको पूजते हुए भी निंद्यपना नहीं मानते। तथा लोकमें तो जिससे प्रयोजन सिद्ध होता जाने, उसीकी सेवा करते हैं और मोहित होकर “कुदेवोंसे मेरा प्रयोजन कैसे सिद्ध होगा"- ऐसा बिना विचारे ही कुदेवोंका सेवन करते हैं। तथा कुदेवोंका सेवन करते हुए हजारों विध्न होते हैं उन्हें तो गिनता नहीं है और किसी पुण्यके उदयसे इष्टकार्य होजाये तो कहता है - इसके सेवनसे यह कार्य हुआ। तथा कुदेवादिकका सेवन किये बिना जो इष्ट कार्य हों, उन्हें तो गिनता नहीं है और कोई अनिष्ट हो जाये तो कहता है - इसका सेवन नहीं किया इसलिये अनिष्ट हुआ। इतना नहीं विचारता कि - इन्हींके आधीन इष्ट-अनिष्ट करना हो तो जो पूजते हैं उनके इष्ट होगा, नहीं पूजते उनके अनिष्ट होगा; परन्तु ऐसा तो दिखायी नहीं देता। जिस प्रकार किसीके शीतलाको बहुत मानने पर भी पुत्रादि मरते देखे जाते हैं, किसीके बिना माने भी जीते देखे जाते हैं; इसलिये शीतलाका मानना किंचित् कार्यकारी नहीं है।
इसी प्रकार सर्व कुदेवोंका मानना किंचित् कार्यकारी नहीं है।
यहाँ कोई कहे - कार्यकारी नहीं है तो न हो, उनके मानने से कुछ बिगाड़ भी तो नहीं होता?
उत्तर :- यदि बिगाड़ न हो तो हम किसलिये निषेध करें? परन्तु एक तो
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