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पाँचवा अधिकार ]
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जानना सर्वज्ञ के बिना किसके हुआ ? जो सर्व क्षेत्र - कालकी जाने वही सर्वज्ञ और नहीं जानता तो निषेध कैसे करता है ?
तथा धर्म-अधर्म लोक में प्रसिद्ध हैं। यदि वे कल्पित हों तो सर्वजन-सुप्रसिद्ध कैसे होते? तथा धर्म-अधर्मरूप परिणति होती देखी जाती है, उससे वर्त्तमानहीमें सुखी - दुःखी होते हैं; इन्हें कैसे न माने ? और मोक्षका होना अनुमानमें आता है। क्रोधादिक दोष किसीके हीन हैं, किसीके अधिक हैं, तो मालुम होता है किसीके इनकी नास्ति भी होती होगी । और ज्ञानादि गुण किसीके हीन, किसीके अधिक भासित होते हैं; इसलिये मालुम होता है किसीके सम्पूर्ण भी होते होंगे। इसप्रकार जिसके समस्त दोषकी हानी, गुणोंकी प्राप्ति हो; वही मोक्ष अवस्था है ।
तथा पुण्य-पापका फल भी देखते हैं। कोई उद्यम करने पर भी दरिद्री रहता है, किसीके स्वयमेव लक्ष्मी होती है; कोई शरीरका यत्न करने पर भी रोगी रहता है, किसीके बिना ही यत्न निरोगता रहती इत्यादि प्रत्यक्ष देखा जाता है; सो इसका कारण कोई तो होगा? जो इसका कारण वही पुण्य-पाप है ।
तथा परलोक भी प्रत्यक्ष - अनुमानसे भासित होता है । व्यंतरादि हैं वे ऐसा कहते देखे जाते हैं मैं अमुक था सो देव हुआ हूँ ।' तथा तू कहेगा 'यह तो पवन है"; सो हम तो ‘मैं हूँ ' इत्यादि चेतनाभाव जिसके आश्रयसे पाये जाते हैं उसीको आत्मा कहते हैं, उसका नाम पवन कहता है । परन्तु पवन तो भीत आदिसे अटकती है, आत्मा मुँदा (बन्द) होने पर भी अटकता नहीं है; इसलिये पवन कैसे माने ?
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तथा जितना इन्द्रियगोचर है उतना ही लोक कहता है; परन्तु तेरे इन्द्रियगोचर तो थोड़े से भी योजन दूरवर्ती क्षेत्र और थोड़ासा अतीत - अनागत काल ऐसे क्षेत्र - कालवर्ती भी पदार्थ नहीं हो सकते, और दूर देशकी व बहुत कालकी बातें परम्परासे सुनते ही हैं; इसलिये सबका जानना तेरे नहीं है, तू इतना ही लोक किस प्रकार कहता है ?
तथा चार्वाकमतमें कहते हैं कि पृथ्वी, अप, तेज, वायु, आकाश मिलनेसे चेतना हो आती है। सो मरने पर पृथ्वी आदि यहाँ रहे, चेतनावान पदार्थ गया सो व्यंतरादि हुआ; जो प्रत्यक्ष भिन्न–भिन्न देखे जाते हैं। तथा एक शरीरमें पृथ्वी आदि तो भिन्न-भिन्न भासित होते हैं, चेतना एक भासित होती है। यदि पृथ्वी आदिके आधारसे चेतना हो तो हाड़, रक्त उच्छ्वासादिकके अलग-अलग चेतना होगी। तथा हाथ आदिको काटनेपर जिस प्रकार उसके साथ वर्णादिक रहते हैं, उसी प्रकार चेतना भी रहेगी । तथा अहंकार, बुद्धितो चेतनाके हैं, सो पृथ्वी आदिरूप शरीर तो यहाँ ही रहा, तब व्यंतरादि पर्यायमें पूर्वपर्यायका
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