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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates १३६ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक अहंपना देखा जाता है सो किस प्रकार होता है ? तथा पूर्वपर्यायके गुप्त समाचार प्रगट करते हैं सो यह जानना किसके साथ गया ? जिसके साथ जानना गया वही आत्मा है। तथा चार्वाकमतमें खाना, पीना, भोग-विलास करना इत्यादि स्वच्छंन्द वृत्तिका उपदेश है; परन्तु ऐसे तो जगत स्वयमेव ही प्रवर्तता है। वहाँ शास्त्रादि बनाकर क्या भला होनेका उपदेश दिया ? तू कहेगा - तपश्चरण, शील, संयमादि छुड़ानेके अर्थ उपदेश दिया; तो इन कार्यों में तो कषाय घटनेसे आकुलता घटती है, इसलिये यहीं सुखी होना होता है, तथा यश आदि होता है; तू इनको छुड़ाकर क्या भला करता है ? विषयासक्त जीवोंको सुहाती बातें कहकर अपना व औरोंका बुरा करनेका भय नहीं है; स्वच्छंन्द होकर विषय सेवनके अर्थ ऐसी झूठी युक्ति बनाता है। इस प्रकार चार्वाकमतका निरूपण किया। अन्यमत निराकरण उपसंहार इसी प्रकार अन्य अनेक मत हैं वे झूठी कल्पित युक्ति बनाकर विषय-कषायासक्त पापी जीवों द्वारा प्रगट किये गये हैं; उनके श्रद्धानादिक द्वारा जीवोंका बुरा होता है। तथा एक जिनमत है सो ही सत्यार्थका प्ररूपक है, सर्वज्ञ वीतरागदेव द्वारा भाषित है; उसके श्रद्धानादिकसे ही जीवोंका भला होता है। ऐसे जिनमतमें जीवादि तत्त्वोंका निरूपण किया है। प्रत्यक्ष-परोक्ष दो प्रमाण कहे हैं; सर्वज्ञवीतराग अर्हतदेव हैं; बाह्य-अभ्यंतर परिग्रहरहित निग्रंथ गुरु हैं। इनका वर्णन इस ग्रंथ में आगे विशेष लिखेंगे सो जानना। यहाँ कोई कहे - तुम्हारे राग-द्वेष है, इसलिये तुम अन्यमतका निषेध करके अपने मतको स्थापित करते हो। उससे कहते हैं - यथार्थ वस्तुका प्ररूपण करनेमें राग-द्वेष नहीं है। कुछ अपना प्रयोजन विचारकर अन्यथा प्ररूपण करें तो राग-द्वेष नाम पाये। फिर वह कहता है - यदि राग-द्वेष नहीं है तो अन्यमत बुरे और जैनमत भला ऐसा किस प्रकार कहते हो? साम्यभाव हो तो सबको समान जानो, मतपक्ष किसलिये करते हो ? उससे कहते हैं - बुरेको बुरा कहते हैं, भलेको भला कहते हैं; इसमें राग-द्वेष क्या किया ? तथा बुरे–भलेको समान जानना तो अज्ञान भाव है; साम्यभाव नहीं है। फिर वह कहता है कि - सर्व मतोंका प्रयोजन तो एक ही है, इसलिये सबको समान जानना? Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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